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उमास्वामि-श्रावकाचार,
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इन १५ कर्मादानोंके स्वरूपकथनमें जिन जिन काँका निषेध किया गया है, प्रायः उन सभी कर्मोंका निषेध उमास्वामिश्रावकाचारमें भी श्लोक नं. ४०३ से ४१२ तक पाया जाता है। परन्तु १४ कर्मादान त्याज्य हैं; वे कौन कौनसे हैं और उनका पृथक् पृथक् स्वरूप क्या है; इत्यादि वर्णन कुछ भी नहीं मिलता । योगशास्त्रके उपर्युक्त चारों श्लोकोंसे मिलते जुलते उमास्वामिश्रावकाचारमें निम्नलिखित श्लोक पाये जाते हैं। जिनसे मालूम हो सकता है कि इन पद्योंमें कितना और किस प्रकारका परिवर्तन किया गया है:
" अंगारभ्राष्टकरणमयःस्वर्णादिकारिता। इष्टकापाचनं चेति त्यक्तव्यं मुक्तिकांक्षिभिः ॥ ४०४॥ नवनीतवसामद्यमध्यादीनां च विक्रयः । द्विपाचतुष्पाञ्चविक्रेयो न हिताय मतः क्वचित् ॥४०६ ॥. कंटनं नासिकावेधो मुष्कच्छेदोंघ्रिभेदनम् । कर्णापनयनं नामनिलौछनमुदीरितम् ॥ ४११ ॥ केकीकुक्कटमार्जारसारिकाशुकमंडलाः। पोष्यंते न कृतप्राणिघाताः पारावता अपि ॥ ४०३॥
-उमा० श्रां० । भगवदुमास्वामिके तत्त्वार्थसूत्रपर 'गंधहस्ति' नामका महाभाष्य रचनेवाले और रत्नकरंङश्रावकाचारादि ग्रन्थोंके प्रणेता विद्वच्छिरोमणि स्वामी समन्तभद्राचार्यका अस्तित्व विक्रमकी दूसरी शताब्दिके लगभग माना जाता है; पुरुषार्थसिद्धपत्यायादि ग्रंथोंके रचयिता श्रीमदमृतचंद्रसूरिने विक्रमकी १० वीं शताब्दिमें अपने अस्तित्वसे इस पृथ्वी
१'निलीछन ' का जव इससे पहले इस धावकाचारमें कहीं नामनिर्देश. नहीं किया गया, तब फिर यह लक्षणनिर्देश कैसा ?