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'दर्शनसार । मतप्रर्वतकोंके मुखियाकी उत्पत्ति । उसहजिणपुत्तपुत्तो मिच्छत्तकलंकिदो महामोहो। सब्वेसि भट्टाणं धुरि गणिओ पुबसूरीहिं ॥३॥
ऋषभनिनपुत्रपुत्रो मिथ्यात्वकलङ्कितो महामोह. । सर्वेषा भट्टानां धुरि गणितः पूर्वसूरिभिः ॥ ३ ॥ अर्थ-पूर्वाचा के द्वारा, भगवान् ऋपभदेवका महामोही और मिथ्याती पोता 'मरीचि' तमाम दार्शनिकों या मतप्रवर्तकाका अगुआ गिना गया है। तेण य कयं विचित्तं दसणरूवं संजुत्तिसंकलियं । तम्हा इयराणं पुण समए तं हाणिबिड्ढिगयं ॥ ४ ॥
तेन च कृतं विचित्रं दर्शनरूपं सयुक्तिसंकलितम् । तस्मादितराणां पुनः समये तद्धानिवृद्धिगतम् ॥१॥ अर्थ-उसने एक विचित्र दर्शन या मत ऐसे ढंगसे बनाया कि वह आगे चलकर उससे भिन्न भिन्न मतप्रवर्तकोंके समयोंमें हानिवृद्धिको प्राप्त होता रहा । अर्थात् उसीके सिद्धान्त थोड़े बहुत परिवर्तित होकर आगेके अनेक मतोंके रूपमें प्रकट होते रहे। एयंत संसइयं विवरीयं विणय महामोहं। अण्णाणं मिच्छत्तं णिघि8 सव्वदरसीहिं ॥५॥
१क पुस्तकमें ' समुत्तिसकलिय' पाठ है । परन्तु इन दोनों ही पाठोंका वास्तविक अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ।