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________________ श्रीदेवसेनाचार्य संकलित दर्शनसार । पणमिय वीरजिर्णिदं सुरसेणणमंसियं विमलणाणं । बोच्छं देसणसारं जह कहियं पुव्वसूरीहिं ॥ १ ॥ प्रणम्य वीरजिनेन्द्रं सुरसेननमस्कृतं विमलज्ञानम् । वक्ष्ये दर्शनसार यथा कथितं पूर्वसूरिभिः ॥ १ ॥ अर्थ-जिनका ज्ञान निर्मल है और देवसमूह जिन्हें नमस्कार करते हैं, उन महावीर भगवानको प्रणाम करके, मैं पूर्वाचार्याके कथनानुसार 'दर्शनसार' अर्थात् दर्शनों या जुदा जुदा मतोंका सार कहता हूँ। मरहे तित्थयराणं पणमियदेविंदणागगरुडानाम् । समएसु होति केई मिच्छत्तपवट्टगा जीवा ॥२॥ भरते तीर्थकराणां प्रणमितदेवन्द्रनागगरुडानाम् । समयेषु भवन्ति केचित् मिथ्यात्वप्रवर्तका नीवाः ॥ २ ॥ अर्थ-इस मारतवर्षमें, इन्द्र-नागेन्द्र-गल्डेन्द्र द्वारा पूजित तीर्थकरोंके समयोंमें (धर्मतीर्थोंमें ) कितने ही मनुष्य मिथ्यामतोंके प्रवर्तक होते हैं।
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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