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________________ दर्शनसार । ॥ एकान्त सांशयिकं विपरीत विनयजं महामोहम् । अज्ञानं मिथ्यात्वं निर्दिष्टं सर्वदर्शिभिः॥५॥ अर्थ-सर्वदशी ज्ञानियोंने मिथ्यात्वके पॉच भेद बतलाये हैं'एकान्त, संशय, विपरीत, विनय और अज्ञान । सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थो । पिहियासवस्स सिस्सो महासुंदो बुड्ढकित्तिमुणी ॥६॥ श्रीपार्श्वनाथतीर्थे सरयूतीरे पलाशनगरस्थः । पिहितास्त्रवस्य शिष्यो महाश्रुतो बुद्धकार्तिमुनिः ॥ ६॥ अर्थ-श्रीपार्श्वनाथ भगवानके तीर्थमें सरयू नदीके तटवर्ती पलाश नामक नगरमें पिहितास्त्रव साधुका शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुआ जो महाश्रुत या बड़ा भारी शास्त्रज्ञ था। तिमिपूरणासणेहिं अहिंगयपवज्जाओ परिभट्टो । रत्तंबरं धरिता पवट्टियं तेण एयंतं ॥७॥ तिमिपूर्णाशनैः अधिगतप्रवज्यातः परिभ्रष्टः । रक्ताम्बरं धृत्वा प्रवर्तितं तेन एकान्तम् ॥ ७॥ १ क पुस्तकमें 'महालुद्धो' और गमें 'महालुदो ' पाठ हैं, जिनका मर्थ महालुब्ध होता है। २क पुस्तकमें 'अगणिय पावन जाउ परिमो' है, जिसका अर्थ होता है-अगणित पापका उपार्जन करके भ्रष्ट हो गया । ख पुस्तकमें अगहिय पपन्नामो परिभट्ठो' पाठ है, परन्तु उसमें अगहिय (मगृहीत) का अर्थ ठीक नहीं बैठता है। समव है 'अहिंगय' (अधिगत) ही भूलसे 'अगहिय.' लिखा गया हो।
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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