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________________ परिशिट। भट्टारक लामीचन्द्र के शिष्य पं० वामदेवके बनाये हुए संस्कृत भावसंग्रहके भी हमें इसी समय दर्शन हुए* । यद्यपि पं० वामदेवने इस बातका कही उल्टेस नहीं किया है; परन्तु मिलान करनेसे मालूम हुआ कि उन्होंने प्राकृत भावसंग्रहका ही न्यूनाविकरूपमें अनुवाद करके अपना यह ग्रन्थ बनाया है। मस्कारिपूरणके सम्बन्धमें उन्होंने नीचे लिले ५श्लोक लिसे है। इनसे पूर्वोक्त गाथाओंका अभिप्राय अछी तरह स्पष्ट हो जाता है। ..............वीरनाथत्य संसदि॥ १८५n जिनेन्द्रस्य ध्वनिग्राहिभाजनामावतस्ततः। शक्रेणात्र समानीतो ब्राह्मणो गोतमामिधः ॥ १८६॥ सद्यः स दीक्षितत्तत्र सबनेः पात्रतां ययौ। ततः देवतमा त्यक्त्वा निर्ययौ मस्करीमुनिः ॥ १८७॥ सन्त्यस्मदादयोऽप्यत्र मुनयः श्रुतधारिणः । तांस्त्यक्त्वा सध्वनेः पात्रमज्ञानी गोतमोऽभवत् ॥ १८८॥ संचिन्त्यैवं अधा तेन दुर्विदग्धेन जल्पितम् । मिथ्यात्यकर्मणः पाकादज्ञानत्वं हि देहिनाम् ॥ १८९॥ हेयोपादेयविज्ञानं देहिनां नास्ति जातचित् । तस्मादज्ञानतो मोक्ष इति शास्त्रत्य निश्चयः ॥१०॥ अर्थात्, वीरनाथ भगवानके समवसरणमें जब योग्य पात्रके अभावमें दिव्यध्वनि निर्गत नहीं हुई, तब इन्द्र गोतम नामक ब्राह्मणको ले आये। वह उसी समय दीक्षित हुआ और दिल्यवनिको धारण करनेकी उसी समय उसमें पात्रता आ गई, इससे मस्कारिपूरण मुनि समाको छोड़कर बाहर चला आया । यहाँ मेरे जैसे __ * इसकी एक हस्तलिखित प्रति श्रीयुत पं० उदयलालजी काशलोवालके पास मौजूद है । ग्रन्यकत्ताने अपनी गुस्परम्परा इस प्रकार दी है-विन्यचन्द्रत्रैलेज्यकीर्ति-लल्लीचन्द्र और वामदेव । अन्यके रचनका समय नहीं दिया।
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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