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________________ दर्शनसार ५३ अनेक श्रुतधारी मुनि है, उन्हें छोड़कर दिव्यध्वनिका पात्र अज्ञानी गोतम हो गया, यह सोचकर उसे क्रोध आगया । मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीवधारियोंको अज्ञान होता है। उसने कहा देहियाको पोपोदयका विज्ञान कभी हो ही नहीं सकता । अत एव शास्त्रका निश्चय है कि अज्ञानसे मोक्ष होता है। दर्शनसारकी वचनिकामें+मस्करिपूरणके सम्बन्धमें नीचे लिखे दो ग्लोक उद्धत किये गये है; पर यह नहीं लिखा कि ये किस ग्रन्थसे लिये गये हैं। कुछ अशुद्ध और अस्पष्ट भी जान पड़ते हैं: पूर्वस्यां वामनेनैव मदनेन च दक्षिणे। पश्चिमस्यां मुसंडेन कुलकेनोत्तरेऽपि तत् ॥ मस्कपूरणमासाद्य चत्वारोऽपि दिवानिशम् । अज्ञानमतमासाद्य (१) लोकाभ्रशतामय (१)॥ अर्थात् पूर्वदिशामें वामनने, दक्षिणमें मदनने, पश्चिममें मुसण्डने और उत्तर कुलकने मस्क-पूरणके अज्ञान मतका प्रचार किया और ___ + वाम्वे रायल एशियाटिक सुसाइटीकी रिपोर्टमें डा. पिटर्सनने ' दर्शनसार वचनिका' का एक जगह हवाला दिया है और लिखा है कि यह अन्य जयपुरमें है । तदनुसार हमने इसकी खोज करनी शुरू की और हमें जयपुरसे तो नहीं; परन्तु देववन्दसे श्रीयुत वावू जुगलकिशोरजीके द्वारा इसकी एक प्रति प्राप्त हो गई। इसके कर्ता पं० शिवजीलालजी हैं। माघ सुदी १० सं० १९३३ को सवाई जयपुरमे यह वनकर समाप्त हुई है। इसकी श्लोकसंख्या लगभग ३५०० और पत्र १६२ हैं। इसमे गाथाओंको अर्थ तो बहुत ही संक्षेपमें लिखा है, संस्कृत छाया भी नहीं दी है; परन्तु प्रत्येक धर्मका सिद्धान्त और उसका खण्डन खूब विस्तारसे दिया है । मूल गाथाओंमें जिन मतोंका उल्लेख है, उनके सिवाय मुमलमान और ईसाई मतोंके विषयमे भी बहुत कुछ लिखा है । वहुतसे मतोंके विपयमें आपने बड़ी गहरी भूलें की है। जैसे मस्करिपूरणको मुसलमान वर्मका मूल मान लेना और यापनीय सघको मूर्तिपूजाविरोधी लोंकागच्छ समझ लेना ।
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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