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________________ दर्शनसार ५१ 'प्रति-यहाँ तक कि गधे जैसे नीच जीवके प्रति भी प्रणाम नमस्कार करना उनका धर्म है । यह विवेकरहित तपस्वियोंका मत है। ४ भावसंग्रहमें मस्करिपूरणका कुछ अधिक परिचय दिया है। परिचयकी गाथायें ये हैं: मसयरि-पूरणरिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थम्मि । सिरिवीरसमवसरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण ॥ १७६ ॥ वहिणिग्गएण उत्तं मज्झं एयारसांगधारिस्स । णिग्गा झुणी ण, अरुहो णिग्गय विस्सास सीसस्स ॥१७७॥ ण मुणइ जिणकहियसुयं संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। विप्पो वेयन्भासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ॥ १७८ ॥ अण्णाणाओ'मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो हु। देवो अ णत्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए ॥ १७९ ॥ इनमेंसे १७८ वीं गाथाका अर्थ ठीक नहीं बैठता । ऐसा मालूम होता है कि, बीचमें एकाध गाथा छूट गई है । भावार्थ यह है कि, पार्श्वनाथके तीर्थमें मस्करि-पूरण ऋषि उत्पन्न हुआ। वीर भगवानकी समवसरणसभासे जब वह उनकी दिव्य ध्वनिको ग्रहण किये विना ही लौट आया, वाणीको धारण करनेवाले योग्यपात्रके अभावसे जब भगवानकी वाणी नहीं खिरी, तब उसने बाहर निकल कर कहा कि मैं ग्यारह अंगका ज्ञाता हूँ, तो भी दिव्य ध्वनि नहीं हुई। पर जो जिनकथित श्रुतको ही नहीं मानता है, जिसने अभी हाल ही दीक्षा ग्रहण की हे ओर वेदोंका अभ्यास करनेवाला ब्राह्मण है वह गोतम ( इन्द्रभूति ) इसके लिए योग्य समझा गया । अतः जान पड़ता है कि ज्ञानसे मोक्ष नहीं होता है । वह लोगों पर यह प्रकट करने लगा कि अज्ञानसे ही मोक्ष होता है । देव या ईश्वर कोई हे ही नहीं। अतः स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान करना चाहिए।
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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