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परिशिष्ट ।
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मोक्षमार्ग है या नहीं, इस प्रकारकी चलघुद्धि रसना संशय है । पूज्य पादस्वामी सर्वार्थसिद्धिमें भी यही लक्षण करते हैं । इससे दर्शनसारमें
और गोम्मटसारकी टीका जो श्वेताम्बरोंको सांशयिक कहा हे सो ठीक नहीं है । वास्तवमें उनकी गणना विपरीतमतमें हो सकती है। यह शका हमने विवेचनाके ५ वें नम्बरमें की थी कि श्वेताम्बर सांशयिक नहीं हो सकते । गजवार्तिकके अनुसार हमारी वह शंका ठीक निकली।
३ राजवार्तिक अध्याय ८, सूत्र १, वार्तिक १२ में वसिष्ठ, पराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, व्यास, रोमहर्षि, सत्यदत्त आदिको वैनयिक बतलाया है । लक्षण दिया है-'सर्वदेवतानां सर्वसमयानां च समदर्शनं वैनयिकत्वम् ।' अर्थात् सब देवोंको और सब मतोंको समान दृष्टिसे देखना वैनयिक मिथ्यात्व है। इस वैनयिक मिथ्यात्वका स्वरूप * भावसग्रहमें इस प्रकार बतलाया है:* 'वेणइयमिच्छदिही हवइ फुड तावसो हु अण्णाणी। निग्गुणजणं पि विणओ पउज्जमाणो हु गयविवेओ ॥ ८८॥ विणयादो इह मोक्खं किज्जइ पुणु तेण गद्दहाईणं। अमुणिय गुणागुणेण य विणयं मिच्छत्तनडिएण ॥ ८९ ॥
अभिप्राय यह है कि इस मतके अनुयायी विनय करनेसे मोक्ष मानते हैं । गुण और अवगुणसे उन्हें कोई मतलब नहीं । सबके
*यह ग्रन्थ हमें हालहीमे जयपुरके एक सन्जनकी कृपासे प्राप्त हुआ है। इसकी एक प्रति दक्खन कालेज पूनाके पुस्तकालयमे भी यह है । छोटासा प्राकृत गाथावद्ध ग्रन्थ है । इसकी श्लोकमख्या ७७० है। जयपुरकी प्रतिके लिखे जानेका समय पुस्तकके अन्तमे ' ज्येष्ठ सुदि १२ शुक्र संवत् १५५८' दिया हुआ है । इसके रचयिता विमलसेन गणिके शिष्य देवसेन हैं । दर्शनसारके कर्ता देवसेन और ये एक ही हैं, ऐसा इस ग्रन्थको रचनाशैलीसे और इसके भीतर जो श्वेताम्बरादि मतोंका स्वरूप दिया है, उससे मालम होता है ।