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________________ दर्शनसार। ३३ प्रवर्तक थे। महापरिनिर्वाणसूत्र, महावग्ग, और दिव्यावदान आदि कई बौद्धग्रन्थोंमें बुद्ध देवके समसामयिक जिन छह तीर्थकरोंका या मतप्रवर्तकोंका वर्णन मिलता है, ये दोनों भी उन्हींके अन्तर्गत हैं। पूरन कश्यपके विषयमें लिखा है कि यह एक म्लेच्छस्त्रीके गर्भसे उत्पन्न हुआ था। कश्यप इसका नाम था । इस जन्मसे पहले यह ९९ जन्म धारण कर चुका था । वर्तमान जन्ममें इसने शतजन्म पूर्ण किये थे, इस कारण इसको लोग 'पूरण-कश्यप' कहने लगे थे। -इसके स्वामीने इसे द्वारपालका काम सौंपा था; परन्तु इसे वह पसन्द न आया और यह नगरसे भागकर एक वनमें रहने लगा । एक बार कुछ चोरोंनेआकर इसके कपड़ेलते छीन लिये, पर इसने कपड़ोंकी परवा न की, यह नग्न ही रहने लगा। उसके बाद यह अपनेको पूरण कश्यप बुद्धके नामसे प्रकट करने लगा और कहने लगा कि मैं सर्वज्ञ हूँ । एक दिन जब यह नगरमें गया, तो लोग इसे वस्त्र देने लगे, परन्तु इसने इंकार कर दिया और कहा-"वत्र लज्जानिवारणके लिए पहने जाते हैं और लज्जा पापका फल है । मै अर्हत हूँ, मैं समस्त पापोंसे मुक्त हूँ, अतएव मै लज्जासे अतीत हूँ। " लोगोंने कश्यपकी उक्तिको ठीक मान लिया और उन्होंने उसकी यथाविधि पूजा की । उनमेंसे ५०० मनुष्य उसके शिष्य हो गये । सारे जम्बू द्वीपमें यह घोषित हो गया कि वह बुद्ध है और उसके बहुतसे शिष्य हैं, परन्तु बौद्ध कहते हैं कि वह ' अवीचि । नामक नरकका निवासी हुआ । सुत्तपिटकके दीर्घनिकाय नामक भागके अन्तर्गत 'सामनओ फलसुत्त' में लिखा है कि पूरण कश्यप कहता था-' असत्कर्म करनेसे कोई पाप नहीं होता और सत्कर्म करनेसे कोई पुण्य नहीं होता । किये हुए काँका फल भविष्यत्कालमें मिलता है, इसका कोई प्रमाण नहीं है।' सस्करि गोशालका वर्णन श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें विस्तारसे मिलता है। वे इसे मंखलि गोशाल कहते हैं । श्वेताम्बरसूत्र 'उवासकदसांग' के
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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