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________________ दर्शनसार। xeNeere MERIKA meri narrrrrrrr- - - उदाहरणमें जो 'ब्रह्म' शब्द दिया है, उसका भी अर्थ 'ब्राह्मणमत' है। पद्मपुराणके अनुसार मुनिसुव्रत तीर्यकरके और पर्वत आदिके समयको लाखों वर्ष हो गये । अत एव यह कथा यदि सच मानी जाय तो वैदिक धर्म जितना पुराना माना जाता है उससे भी बहुत पुराना सिद्ध हो जायगा। हमारी समझमें तो स्वय वेदानुयायी ही अपने धर्मको इतना पुराना नहीं मानते है । जैन विद्वानों के लिए यह सोचने विचारनेकी बात है। १५ बीसवींसे तेईसवींतक चार गाथाओंमें अज्ञान मतका वर्णन है। इसके कत्तीका नाम 'मस्करिपूरन' नामक साधु बतलाया गया है, परन्तु बौद्ध ग्रन्थोंसे मालूम होता है कि मस्करि-गोशाल और पूरन कश्यप ये दो भिन्न भिन्न व्यक्ति थे और दो जुदा जुदा मतोंके 'भजैर्यष्टव्यं ' इस वाक्य पर विवाद हुआ। नारद इसका अर्थ करता या कि पुराने यवोंसे यजन करना चाहिए और पर्वत कहता था कि बकरोंसे । अर्थात् यज्ञमें पशुओंका आलभन करना चाहिए। दोनों अपने अपने अर्थको क्षीरकदम्बका बतलाया हुआ कहते थे । राजा वसु प्रसिद्ध सत्यवादी था। दोनोंने यह शर्त लगाई कि राजा वसु जिसके अर्थको सत्य अर्थात् क्षीरकदम्बके कथनानुसार वतलावे उसीकी जीत समझी जाय और जो हारे उसकी जिह्वा छेदी जाय । दूसरे दिन इसका निर्णय होनेवाला था कि पहली रातको पर्वतकी माताने अपने पुत्रका पक्ष असत्य समझकर उसकी जिहा काटी जानेके डरसे राजा वसु पर अनुचित दवाव डाला और उसे झूठ बोलने पर राजी कर लिया। दूसरे दिन सभामें राजावसुने पर्वतके हो पक्षको सत्य बतलाया और इसका फल यह हुआ कि उसका सिंहासन लोगोंके देखते देखते जमीनके नीचे फंस गया । इसके बाद पर्वत अपने पक्षका समर्थन करता हुआ और यज्ञमें हिंसा करनेका उपदेश देता हुआ फिरने लगा। 'यज्ञार्य पशव सृष्ट स्वयमेव स्वयंभुवा, आदि श्लोकका वह प्रचारक हुमा । आगे उसने राजा मरुतके द्वारा एक बड़ा भारी यज्ञ कराया जिसका विध्वंस रावणने जाकर किया।
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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