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________________ wwwww www दर्शनसार । NNNNN ३१ NIAN INNNN दोनों ही समय सशंकित हैं । एक वात और है । श्वेताम्बर -सम्प्रदायके आगम या सूत्रग्रन्थ वीरनिर्वाण संवत् ९८० ( विक्रम सवत् ५१० ) के लगभग वल्लभीपुरमें देवर्धिगणि क्षमाश्रमणकी अध्यक्षता में संगृहीत होकर लिखे गये है और जितने दिगम्वर - श्वेताम्बर ग्रन्थ उपलब्ध हैं और जो निश्चयपूर्वक साम्प्रदायिक कहे जा सकते हैं वे प्रायः इस समयसे बहुत पहलेके नहीं है । अत एव यदि यह मान लिया जाय कि विक्रम संवत् ४१० के सौ पचास वर्ष पहले ही ये दोन भेद सुनिश्चित और सुनियमित हुए होंगे तो हमारी समझमें असंगत न होगा। इसके पहले भी भेद रहा होगा; परन्तु वह स्पष्ट और सुशृंखलित न हुआ होगा । श्वेताम्बर जिन बातोंको मानते होंगे उनके लिए प्रमाण माँगे जाते होंगे और तब उन्हें आगमोंको साधुओंकी अस्पष्ट यादगारी परसे संग्रह करके लिपिवद्ध करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई होगी। इधर उक्त संग्रहमें सुशृंखलता प्रौढता आदिकी कमी, पूर्वापरविरोध और अपने विचारोंसे विरुद्ध कथन पाकर दिगम्बरोंने उनको मानने से इनकार कर दिया होगा और अपने सिद्धान्तोंको स्वतंरूपसे लिपिबद्ध करना निश्चित किया होगा । आशा है कि विद्वानोंका ध्यान इस और जायगा ओर वे निष्पक्ष दृष्टिसे इस श्वेताम्बर - दिगम्बरसम्वन्धी प्रश्नका निर्णय करेंगे । १४ सोलहवीं और सत्रहवी गाथामें जिस विपरीत मतकी उत्पत्ति बतलाई है, उसकी पद्मपुराणोक्त कथासे मालूम होता है कि वह ब्राह्मणोंका वैदिक मत है, जो यज्ञमें पशुहिसा करनेमें धर्म समझता है । गोम्मटसारमें 'एयंत बुद्धदरंसी ' आदि गाथामें विपरीत मतके * क्षौरकदम्ब उपाध्यायके पास राजपुत्र वसु, नारद और उनका पुत्र पर्वत ये तीनों पढ़ते थे । क्षीर कदम्ब मुनि होकर तपस्या करने लगे । वसु - राजा हो गया और राजकार्य करने लगा । पर्वत और नारदमें एक दिन
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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