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(४) शब्द के आदि में अवस्थित व्यंजनों में प्राण-ध्वनि के आगमऔर लोप न का उल्लेख हम पहले कर चुके है। शब्द के मध्य में स्थित व्यंजनों में भी यह परिवर्तन होता है, अर्थात् मध्य में स्थित संस्कृत अघोष अल्पप्राण व्यंजन (क्, त्, प् आदि) पालि में उसी वर्ग के अघोष महाप्राण व्यंजन हो जाते हैंशुनक (कुत्ता)
सुनख (प्रा० सुनह) सुकुमार
सुखुमाल इसी प्रकार कहीं-कहीं, किन्तु आदि स्थित व्यंजनों की तरह ही बहुत कम, प्राण-ध्वनि का लोप भी हो जाता हैकफोणि
कपोणि (५) कहीं कहीं नियम (१) के विपरीत सं० घोष स्पर्श पालि में उसी वर्ग के अघोष स्पर्श हो जाते हैं। ये परिवर्तन बोलियों की विभिन्नताओं के कारण
अगुरु
अकलु छगल
छकल परिघ
पलिख (पलिघ भी) कुसीद
कुसीत मृदंग
मुतिङ्ग उपधेय (तकिया) उपथेय्य पिधीयते (ढाँका जाता है) पिथीयति शावक (जानवर का बच्चा) चापक प्रावरण
पापुरण (६) व्यंजनों के उच्चारण-स्थान में परिवर्तन । यह परिवर्तन मध्य-स्थित व्यंजनों में आदि-स्थित व्यंजनों की अपेक्षा बहुत अधिक हुआ है। इस सम्बन्ध में सब से अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन सं० दन्त्य व्यंजनों का पालि में मुर्धन्यीकरण है। सं० दन्त्य व्यंजन त्, थ, द्, ध्, न पालि में क्रमशः ट, ठ, ड्, ल्ह, ण् हो जाते हैं। यह नियम सामान्यतः आदि और मध्य दोनों ही स्थितियों के लिये ठीक है। पतंग
पटंग
हट