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शुक
कपित्थ
कविट्ठ • ग्रथित
गधित (गथित भी) इस प्रकार के परिवर्तन अपभ्रंश और कई प्राकृतों में भी पाये जाते हैं। (२) उपर्युक्त परिवर्तन से एक अधिक विकसित अवस्था वह है जिसमें अघोष स्पर्शों का लोप हो जाता है और वे 'य' या 'व्' ध्वनि में परिवर्तित हो जाते हैं। इसके बाद ही वह अवस्था होती है जिसमें 'य' या 'व' व्यंजन का भी बिलकुल लोप हो जाता है । सं० 'शत' शब्द के विकृत या विकसित रूपों में हम इस विकास का अच्छा अध्ययन कर सकते हैं। पहले इसका पालि में 'सत' होता है, फिर अघोष स्पर्श 'त्' का 'द्' होता है और इस प्रकार प्राकृत में 'सद' रूप बनता है । इसका भी आगे विकसित रूप 'सय' बनता है और फिर अन्त में 'सअ' और 'सौ'। अघोष स्पर्शों का लुप्त हो कर 'य' या 'व' में परिवर्तित होना प्राकृतों के समान पालि में भी पाया जाता है । अतः वह भी पालि का एक प्राकृतपन' है । उदाहरण--
सुव (सुक भी) खादित
खायित स्वादते
सायति (सादियति भी) अपरगोदान
अपरगोयान कुशीनगर
कुसिनअर-कुसिनार कौशिक
कोसिय (३) शब्द के मध्य में स्थित घोष महाप्राण व्यंजनों (घ, ध्, भ, आदि) का 'ह' में परिवर्तित हो जाना प्राकृतों की एक विशेषता है। यह प्रवृत्ति पालि में भी यत्र-तत्र पाई जाती है। लघु
लहु. रुधिर
रुहिर (रुधिर भी) साधु
साहु (अधितकर तो साधु ही) इसके विपरीत कहीं-कहीं पालि वैदिक भाषा के घोष महाप्राण व्यंजनों को सुरक्षित रखती है जब कि संस्कृत में उनके स्थान में 'ह' हो जाता है। इसका उदाहरण पालि 'इध' (यहाँ) शब्द है । अवेस्ता (जिसमें भी इसका रूप 'इध' होता है) के आधार पर हम जान सकते हैं कि इसका वैदिक स्वरूप 'इध' ही था। किन्तु संस्कृत में यह 'इह' हो गया है।