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८--निद्देस, इतिवृत्तक, पटिसम्भिदा। ९---पेतवत्थु, विमानवत्थु, अपदान, चरियापिटक, बद्धवंस। १०--अभिधम्म-पिटक के ग्रन्थ, जिनमें पुग्गलपत्ति प्रथम और कथावत्थु
अन्तिम हैं। इस क्रम का कुछ परिवर्तन डा० विमलाचरण लाहा ने किया है। उनके मतानुसार त्रिपिटक के ग्रन्थों का काल-क्रम की दृष्टि से यह तारतम्य ठहरता है-- १--वे बुद्ध-वचन, जो समान शब्दों में त्रिपिटक के प्रायः सब ग्रन्थों की
गाथाओं आदि में मिलते हैं। २--वे बुद्ध-वचन, जो समान शब्दों में केवल दो या तीन ग्रन्थों में ही मिलते हैं। ३--शील, पारायण, अट्ठकवग्ग, सिक्खापद।। ४--दीघ-निकाय (प्रथम स्कन्ध), मज्झिम-निकाय, संयुत्त-निकाय, अंगुत्तर
निकाय, पातिमोक्ख जिसमें १५२ नियम हैं। ५---दीघ-निकाय (द्वितीय और तृतीय स्कन्ध) थेरगाथा, थेरीगाथा, ५००
जातकों का संग्रह, सुत्त-विभंग, पटिसम्भिदामग्ग, पुग्गलपञत्ति, विभंग ६---महावग्ग, चुल्लवग्ग, पातिमोक्ख (२२७ नियमों का पूर्ण होना), विमान
वत्थु, पेतवत्थु, धम्मपद, कथावत्थु । 9--चुल्लनिद्देस, महानिद्देस, उदान, इतिवृत्तक, सुत्त-निपात, धातुकथा, यमक,
पट्ठान।
८--बुद्धवंम, चरियापिटक, अपदान । ९--परिवार-पाठ। १०--खुद्दक-पाठ।'
त्रिपिटक के विभिन्न ग्रन्थों या अंशों के काल-क्रम सम्बन्धी उपर्युक्त निष्कर्ष अपर्याप्त ही नही स्वेच्छापूर्ण भी है। रायस डेविड्स और लाहा दोनों ही विद्वानों ने भाषा-सम्बन्धी विकास को आधार मान कर,जिसका साक्ष्य अभी स्वतः प्रमाण नहीं माना जा सकता, अपना काल-क्रम स्थापित किया है। वास्तव में त्रिपिटक के ग्रन्थों में पूर्वापरता स्थापित करने के लिये हमें पहले निश्चित करना होगा कि उसके कौन से अंश मूल प्रामाणिक बुद्ध-वचन हैं और कौन से बाद के परिवर्तन या दोनों के मिश्रित स्वरूप । मूल प्रामाणिक बुद्ध-वचनों में भी हमें बुद्ध के वर्षावासों
१. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ ४२