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चतुर्थ युग ( २३० ई० पू० - पंचम युग ) ( ८० ई० पू० -- इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिपिटक के जो प्राचीन से प्राचीन अंश हैं उनके स्वरूप का निश्चय ४८३ ई० पू० अर्थात् शास्ता के परिनिर्वाण के समय ही हो गया था, और जो अर्वाचीन से अर्वाचीन भी हैं वे भी २० ई० पू० के बाद के नहीं हैं, क्योंकि उस समय वे लेखबद्ध ही हो चुके थे, जब से वे उसी रूप में आज तक चले आ रहे हैं। इस प्रकार समष्टि रूप में त्रिपिटक की रचना की उपरली और निचली कोटियों का पूर्ण अनुमापन हो जाने पर भी उसके अलग अलग ग्रन्थों के आपेक्षिक काल-पर्याय क्रम का सवाल अभी रह ही जाता है । इसके लिये न केवल ऐतिहासिक विवेचन की ही किन्तु अलग अलग ग्रन्थों की विषय-वस्तु के विवेचन की भी बड़ी आवश्यकता है, जिसे हम इस स्थल पर नहीं कर सकते । अत: जब हम आगे के अध्यायों में त्रिपिटक के भिन्न भिन्न ग्रन्थों या अंशों का विवेचन करेंगे तो उस समय उनके काल-पर्याय क्रम का विवेचन भी हमारे अध्ययन का एक विशेष अंग होगा । हाँ, इस सम्बन्ध में जो पूर्व अध्ययन हो चुका है उसके परिणामों को यहाँ रख देना आवश्यक होगा । सब से पहले डा० रायस डेविड्स ने त्रिपिटक के काल पर्याय क्रम का विवेचन किया था। उन्होंने अपने अध्ययन के परिणाम स्वरूप पालि त्रिपिटक का बुद्ध - परिनिर्वाण काल से लेकर अशोक के काल तक इन दस काल-पर्यायात्मक अवस्थाओं में विभाजन किया था
८० ई० पू० ) २० ई० पू० )
१ - - वे बुद्ध वचन, जो समान शब्दों में ही त्रिपिटक के प्रायः सवग्रन्थों की गाथाओं
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आदि में मिलते हैं ।
२ -- वे बुद्ध वचन, जो समान शब्दों में केवल दो या तीन ग्रन्थों में ही मिलते हैं। ३ - - शील, पारायण, अट्ठकवग्ग, पातिमोक्ख ।
४ -- दीघ, मज्झिम, अंगुत्तर और संयुत्त निकाय ।
५ -- सुत्तनिपात, थेरगाथा, थेरीगाथा, उदान, खुद्दक पाठ ।
६ -- मुत्त - विभंग, खन्धक ।
७- - जातक, धम्मपद ।
१. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द पहली, पृष्ठ १२-१३ २. बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ १८८