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लोगस्स।
१५ मल्लिनाथ, श्रीमुनिसुव्रत, श्रीनमिनाथ, श्रीअरिप्टनेमि, श्रीपार्श्वनाथ और श्रीमहावीर स्वामी---इन चौबीस जिनेश्वरों की मैं स्तुति-वन्दना करता हूँ ॥ २-४ ॥
* एवं मए अभिथुआ, विहुयरयमला पहीणजरमरणा । ___ चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ ५ ॥
अन्वयार्थ--'एवं' इस प्रकार 'मए' मेरे द्वारा 'अभिथुआ' स्तवन किये गये, · विहुयरयमला ' पाप-रज के मल से विहीन. 'पहीणजरमरणा ' बुढ़ापे तथा मरण से मुक्त. ' तित्थयरा' तीर्थ के प्रवर्तक ' चउवीसंपि ' चौबीसों 'जिणवरा' जिनेश्वर देव · मे मेरे पर पसीयंतु ' प्रसन्न हों ॥ ५ ॥ + कित्तियवंदियमहिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा।
आरुग्गवोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं किंतु ॥६॥
अन्वयार्थ-'जे' जो · लोगम्स' लोक में · उत्तमा ' प्रधान [ तथा ] 'सिद्धा' सिद्ध हैं | और जो ] 'कित्तियवंदियमाहिया' कीर्तन, वन्दन तथा पूजन को प्राप्त हुए हैं 'ए' वे [ मुझको ] — आरुग्गबोहिलाभं' आरोग्य का तथा धर्म का लाभ [ और ] — उत्तमं ' उत्तम समाहिवर' समाधि का वर 'दितु ' देवें ॥ ६॥
* एवं मयाऽभिष्टुता विधूतरजोमलाः प्राणजरामरणाः ।
चतुर्विंशतिरपि जिनवरास्तीर्थकरा में प्रसीदन्तु ॥ ५॥ + कीर्तितवीन्दतमीहता य एते लोकस्योत्तमाः सिद्धाः ।
आरोग्यबोधिलाभंसमाधिवरमुत्तमं ददतु ॥ ६॥