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संथारा पोरिसी। १९१ भावार्थ--[प्रतिज्ञा । मङ्गलभूत वस्तुएँ चार ही हैं:-(१) अरिहन्त, (२) सिद्ध, (३) साधु और (8) केवलि-कथित धर्म । लोक में उत्तम वस्तुएँ भी वे चार ही हैं:-(१) अरिहन्त, .(२) सिद्ध, (३) साधु और केवलि-कथित धर्म । इस लिये मैं उन पारों की शरण अङ्गीकार करता हूँ ॥५-७॥ * पाणाइवायमलिअं, चोरिक मेहुणं दविणमुच्छं।
कोहं माणं माय, लोहं पिज्ज तहा दोसं ॥८॥ कलहं अब्भक्खाणं, पेसुन्नं रइ-अरइ-समाउत्तं । परपरिवायं माया, मोसं मिच्छत्तसल्लं च ॥९॥ वोसिरसु इमाइं मु, क्खमग्गसंसग्गविग्धभूआई।
दुग्गइनिबंधणाई, अट्ठारस पावठाणाई ॥१०॥ भावार्थ-पापस्थान-त्याग।] हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान-मिथ्यादोषारोप, पैशुन्य, रति-अरति, परपरिवाद, मायामृषावाद, मिथ्यात्वशल्य, ये अठारह पापस्थान मोक्ष की राह पाने में विनरूप हैं। इतना ही नहीं, बल्कि दुर्गति के कारण हैं; इस लिये ये सभी त्याज्य हैं ।।८-१०॥ * प्राणातिपातमलीकं, चौर्य मैथुनं द्रविणमूर्छाम् । क्रोधं मानं मायां, लोभ प्रेयं तथा द्वेषम् ॥८॥ कलहमभ्याख्यानं, पैशुन्यं रत्यरति-समायुक्तम् । परपरिवादं मायामृषा मिथ्यात्वशल्यं च ॥९॥ • व्युत्सृजेमानि मोक्षमार्गसंसर्गविघ्नभूतानि । दुर्गतिनिबन्धनान्यष्टादश पापस्थानानि ॥१०॥