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१९२ प्रतिक्रमण सूत्र ।। * एगोऽहं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ ।
एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासइ ॥११॥ एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥१२॥ संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोगसंबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ॥१३॥
भावार्थ--[ एकत्व और अनित्यत्व भावना । ] मुनि प्रसन्न चित्त से अपने आत्मा को समझाता है कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी दूसरे का नहीं हूँ। ज्ञान-दर्शन . पूर्ण मेरा आत्मा ही शाश्वत है; आत्मा को छोड़ कर अन्य सब पदार्थ संयोगमात्र से मिले हैं । मैं ने परसंयोग से ही अनेक दुःख प्राय किये हैं; इस लिये उस का सर्वथा त्याग किया है ।।११-१३।।
+ अरिहंतो मम देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो ।
जिणपन्नत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहिरं ॥१४॥ भावार्थ--[सम्यक्त्व-धारण । ] मैं इस प्रकार का सम्यक्त्व * एकोऽहं नास्ति मे कश्चित् , नाहमन्यस्य कस्याचित् । एवमदीनमना, लात्मानमनुशास्ति ॥११॥ एको मे शाश्वत आत्मा, ज्ञानदर्शनसंयुतः । शेषा मे बाह्या भावाः, सर्व संयोगलक्षणाः ॥ १२ ॥ संयोगमूला जीवेन, प्राप्ता दुःखपरम्परा।
तस्मात् संयोगसंबन्धः, सर्व त्रिविधेन व्युत्सृष्टः ॥१३॥. + अर्हन मम देवो, यावज्जीवं सुसाधवो गुरवः । जिनप्रज्ञप्तं तत्त्वमिति सम्यक्त्वं मया गृहतिम् ॥१४॥