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(९६) ३१ सा-आचारज कहे जिन वचनको विसतार, अगम अपार है.. कहेंगे हम कितनो ॥ बहुत बोलवेसों न मकसूद चुप्प भलो, बोलियमों वचन प्रयोजन है जितनो ॥ नानारूप जल्पनसो नाना विकल्प उठे, ताते जेतो कारिज कयन भलो तितनो । शुद्ध परमातमाको अनुभौ अभ्यास कीजे, येही मोक्ष पंथ परमारथ है इतनो ॥ १२४ ॥ .
शुद्धातम अनुभौ क्रिया, शुद्ध ज्ञान हग दोर। मुक्तिपंथ साधन वहै, वागजाल सब और ॥ १२५ ॥ जगत चक्षु आनंदमय, ज्ञानाचेतना भास।। निर्विकल्प शाश्वत सुथिर, कीजे अनुभौ तास ॥ १२६ ॥ .. अचल अखंडित ज्ञानमय, पूरण नीत ममत्व । ज्ञानगम्य बाधा रहित, सोहै आतस तत्व ।। १२७ ।। सर्व विशुद्धी द्वार यह, कहां प्रगट शिवपंथ । कुंकुंद मुनिराजकृत, पूरण भयो जु ग्रंथ ॥ १२८॥ चौपाई-कुंदुकुंद मुनिराज प्रवीणा । तिन यह ग्रंथ कीना इहालो। गाथा वद्धसों प्राकृत वाणी । गुरु परंपरा रीत वखाणी ॥ १२९ ॥ . भयो ग्रंथ जगमें विख्याता । सुनत महा मुख पावहि ज्ञाता॥ . जे नव रस जगमाहि वखाने । ते सब समयसार रस माने ॥ १३० । प्रगटरूप संसारमें, नव रस नाटक होय। . .. नव रस गर्भित ज्ञानमें, विरला जाणो कोय।। १३१॥ कवित्त-प्रथम श्रृंगार वीर दूजो रस, तीजो रस करुणा सुखदायका
हान्य चतुर्थ रुद्र रस पंचम, छहम रस वीभत्स विभायक ॥ .