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(९५) गुण पर्यायमें दृष्टि न दिने । निर्विकल्प अनुभव रस पीने ॥ आप समाइ आपमें लीने । तनुपा मेटि अपनपो कीजे ॥ ११६ ॥ तज विभाव हूजे मगन, शुद्धातम पद मांहि । एक मोक्षमारग यहै, और दूसरो नांहि ॥ ११७ ॥
३१ सा-केई मिथ्यादृष्टि जीव धरे जिन मुद्रा भेप, क्रियामें मगन रहे कहे हम यती है । अतुल अखंड मल रहित सदा उद्योत, ऐसे ज्ञान भावसों विमुख मूढमती है ।। आगम संभाले दोष टालें. व्यवहार भाले, पाले व्रत यद्यपि तथापि अविरती है || आपको कहावे मोक्ष मारगके अधिकारी, मोक्षसे सदैव रुष्ट रुष्ट दुरगती है ॥ ११८ ॥
जैसे मुगध धान पहिचाने । तुप तंदुलको भेद न जाने । तैसे मूढमती व्यवहारी । लखे न बंध मोक्ष विधि न्यारी ॥ ११९ ॥ जे व्यवहारी मूढ नर, पर्यय बुद्धी जीव । तिनके बाह्य क्रियाहिको, है अवलंब सदीव ॥ १२० ॥ कुमति बाहिज दृष्टिसो, बाहिज क्रिया करंत । माने योक्ष परंपरा, मनमें हरप धरंत ॥ १२१ ॥ शुद्धतम अनुभौ कथा, कहे समकिती कोय । सो सुनिके तासो कहे, यह शिवपंथ न होय ॥ १२२॥
कवित्त-जिन्हके देह बुद्धि 'धट अंतर, मुनि मुद्रा धरि क्रिया प्रमाणहि ॥ ते हिय अंध बंधके करता, परम तत्वको भेद न जानहि ।। जिन्हके हिये सुमतिकी कणिका, वाहिन क्रिया भेप परमाणहि ॥ ते समकिती मोक्ष मारग सुख, करि प्रस्थान भवस्थिति भानहि ॥ १२३ ॥