________________
सप्तम भय अष्टम रस अद्भुत, नवमो शांत रसनिको नायक ॥ . ये नव रस येई नव नाटक, जो जहां मग्न सोही तिहि लायक ॥ ४ ॥
३१ सा-शोभामें शंगार वसे वीर पुरुषारथमें, कोमल हियेमें करुणा रस वखानिये ॥ आनंदमें हास्य रुंङ मुंडमें विराजे रुद्र, वीभत्स तहां जहां गिलानि मन आनिये ॥ चिंतामें भयानक अथाहतामें अद्भुत मायाकी अरुचि तामे शांत रस मानिये ॥ येई नव रस भवरूप येई भावरूप, इनिको विलक्षण सुदृष्टि जगे जानिये ॥५॥ __ छप्पै छंद--गुण विचार शृंगार, वीर उद्यम उदार रुख । करुणा रस सम रीति, हास्य हिरदे उच्छाह सुख । अष्ट करम दल मलन, रुद्र वत्त तिहि थानक । तन विलक्ष वीभत्स, द्वंद दुख दशा भयानक । अद्भुत अनंत बल चितवन, शांत सहन वैराग्य ध्रुव । नव रस विलास प्रकाश तब, जब सुबोध घट प्रगट हुव ॥ ६ ॥ चौपाई-जव सुवोध घटमें प्रकाशे । तब रस विरस विषमता नासे । नव रस लखे एक रस मांही ताते विरस भाव मिटि जांही ॥ ७ ॥
सब रस गर्भित मूल रस, नाटक नाम गरंथ । जाके सुनत प्रमाण जिय, समुझे पंथ कुपंथ ॥ ८॥ चौपाई-वरते ग्रंथ जगत हित काजा । प्रगटे अमृतचंद मुनिराजा ।। तव तिन ग्रंथ जानि अति नीका । रची वनाई संस्कृत टीका ॥९॥ सर्व विशुद्धि द्वारलों, आये करत वखान । तव आचारज भक्तिसों, करे ग्रंथ गुण गान ॥ १० ॥
॥ इति श्रीकुंदकुंदाचार्यानुसार समयसार नाटक समाप्त ॥