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________________ (१०८) कवित्त-ज्ञानदृष्टि जिन्हके घट अंतर, निरखे द्रव्य सुगुण परजाय ॥ : जिन्हके सहज रूप दिन दिन प्रति, स्याद्वाद साधन अधिकाय ॥ जे केवली प्रणित मारग मुख, चित्त चरण राखे ठहराय ।। ते प्रवीण करि क्षीण मोह मल, अविचल होहिं परम पद पाय ।। ३३ ॥ ३१ सा--चांकसो फिरत जाको संसार निकट आयो, पायो जिन्हे सम्यक् मिथ्यात्म नाश करिके ॥ निरद्वंद मनसा सुभूमि साधि लीनी जिन्हे, किनी मोक्ष कारण अवस्था ध्यान धरिके ॥ सोही शुद्ध अनुभौ अभ्यासी अविनासी भयो, गयो ताको करम भरम रोग गरिके ।। मिथ्यामति अपनो -स्वरूप न पिछाने ताते, डोले जग जालमें अनंत काल भरिके ॥ ३४ ॥ . ने जीव दरवरूप तथा परयायरूप, दोउ नै प्रमाण वस्तु शुद्धता गहत है ॥ जे अशुद्ध भावनिके त्यागी गये सरवथा, विषैसों विमुख व्है विरागता वहत है ॥ जे जे ग्राह्य भाव त्याज्य भाव दोउ भावनिकों, अनुभौ अभ्यास विषे एकता करत है ॥ तेई ज्ञान क्रियाके आराधक -सहन मोक्ष, मारगके साधक अवाधक महत है ॥ ३५ ॥ विनसि अनादि अशुद्धता, होइ शुद्धता पोख। ता परणतिको बुध कहे, ज्ञानक्रियासों मोख ॥ ३६ ॥. जगी शुद्ध सम्यक् कला, बगी मोक्ष मग जोय । वहे कर्म चूरण करे, क्रम क्रम पूरण होय ॥ ३७ ॥ जाके घट ऐसी दशा, साधक ताको नाम । जैसे जो दीपक धरे, सो उजियारो धाम ॥ ३८॥
SR No.010588
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages134
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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