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(१०९) १: ३१ सा-जाके घट अंतर मिथ्यात अंधकार गयो, भयो परकाश
शुद्ध समकित भानको ॥ जाकी मोह निद्रा घटि ममता पलक फटि, जाणे निज मरम अवाची भगवानको ।। जाको ज्ञान तेज बग्यो उद्दिम उदार जग्यो, लग्यो सुख पोष समरस सुधा पानको ॥ ताही सुविचक्षणको संसार निकट आयो, पायो तिन मारग सुगम निरवाणको ॥ ३९ ॥
जाके हिरदेमें स्यादवाद साधना करत, शुद्ध आतमको अनुभौ प्रगट भयो है ॥ जाके संकलप विकलपके विकार मिटि, सदाकाल एक भाव रस परिणयो है ॥ जाते बंध विधि परिहार मोक्ष अंगीकार, ऐसो सुविचार पक्ष सोउ छांड दियो है ॥ जाकी ज्ञान महिमा उद्योत दिन दिन प्रति, सोही भवसागर उलंघि पार गयो है ॥ ४० ॥ __ अस्तिरूप नासति अनेक एक थिररूप, अथिर इत्यादि नानारूप जीव कहिये ॥ दीसे एक नयकी प्रति पक्षी अपर दूजी, नैको न दिखाय वाद विवादमें रहिये ॥ थिरता न होय विकलपकी तरंगनीमें, चंचलंता वढे अनुभौ दशा न लहिये ॥ ताते जीव अचल अबाधित अखंड एक, ऐसो पद साधिके समाधि सुख गाहये ॥ ४१ ॥
जैसे एक पाको अन फल ताके चार अंश, रस जाली गुठली छिलकः जब मानिये ॥ ये तो न वने पै ऐसे बने जैसे वह फल, रूप रस गंध फास अखंड प्रमानिये ॥ तैसे एक जीवको दरव क्षेत्र काल भाव, अंश भेद करि भिन्न भिन्न न वखानिये ॥ द्रव्यरूप क्षेत्ररूप कालरूप भावरूप, चारों रूप अलख अखंड सत्ता मानिये ॥ ४२ ॥