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________________ (१०७) ... दर्वित ये सातों व्यसन, दुराचार दुख धाम । __भावित अंतर कल्पना, मृषा मोह परिणाम ॥ २६ ॥ ३१ सा-अशुभमें हारि शुभ जीति यहै द्युत कर्म, देहकी मगन ताई यहै मांस भखियो। मोहकी गहलसों अजान यहै सुरा पान, कुमतीकी रीत गणिकाको रस चखियो। निर्दय व्है प्राण घात करवो यहै सिकार, पर नारी संग पर बुद्धिको परखिवो ॥ प्यारसों पराई सौज गहिवेकी चाह चोरी, एई सातों व्यसन बिडारे ब्रह्म लखिवो ॥ २७ ॥ __ व्यसन भाव जामें नहीं, पौरुष अगम अपार । किये प्रगट घट सिंधुमें, चौदह रत्न उदार ॥ २८॥ . ३१ सा-लछमी सुबुद्धि अनुभूति कउस्तुभ मणि, वैराग्य कलप वृक्ष शंख सु वचन है ॥ ऐरावति उद्यम प्रतीति रंभा उदै विष; कामधेनु निर्जरा सुधा प्रमोद धन है ॥ध्यान चाप प्रेम रीत मदिरा विवेक वैद्य, शुद्ध भाव चंद्रमा तुरंगरूप मन है | चौदह रतन ये प्रगट होय जहां तहां, ज्ञानके उद्योत घट सिंधुको मथन है ॥ २९ ॥ किये अवस्थामें प्रगट, चौदह रत्न रसाल। कन्छु त्यागे कछु संग्रहे, विधि निषेधकी चाल ॥ ३०॥ रमा शंक विष धनु सुरा, वैद्य धेनु हय हेय । मणि शंक गज कलप तरु, सुंधा सोम आदेय ॥३१॥ इह विधि जो परभाव विष, वमे रमे निजरूप । . सो साधक शिव पंथको, चिद्विवेक चिद्रूप ॥ ३२ ॥
SR No.010588
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages134
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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