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________________ विद्यार्थी-जीवन दोहा-नवल बधू करिके चली, वासर सुभग सिंगार । मनहुँ लियो ब्रजभूमि पर, काम कला अवतार ॥ टीका-सुन्दर रूप की राशि वधू शुभ साजि सिंगार चली सो नवीना । नैन चलावति भौह मरोरति औ मुसक्याति है प्यारी प्रबीना । लक वडी लचकै पचकै अरु पॉय महावर हू शुभ दीना। शोभित मानो अहो ब्रजमडल काम कला अवतार सो लीना । ए सजनी वह नन्द को सॉवरो देत रहै नित हो नित फेरी। कानि करी कबहूँ नहि तैने सुनैक नही वितको हँसि हेरी। जोवन जोश के जोर मे आयकै चीन्हे नही पर पीर को एरी। लाल गुपाल को देख भटू छतियाँ कसकी न कसाइन तेरी। इन उदाहरणो से प्रकट होता है कि सत्यनारायणजी को उन दिनो शृङ्गाररस से विशेष प्रेम था। उनके इस प्रेम के कारण एक बार बड़ी मजेदार घटना हो गई। श्रीयुत सत्यभक्तजी ने विद्यार्थी मे लिखा था कि, एक दिन की बात है सत्यनारायणजी ने कृष्ण और गोपियो के विषय मे एक शृङ्गाररस-पूर्ण सवैया बनाया, और न मालूम क्या सोचकर उसे अपने गुरू महाराज बाबा रघुवरदासजी को सुना दिया। उन्होने तो सोचा होगा कि गुरूजी हमारी विद्या-बुद्धि पर प्रसन्न होकर शाबाशी देगे; पर वहाँ उलटे लेने के देने पड़ गये। महन्तजी सवैया सुनकर बड़े नाराज हुए, और सत्यनारायणजी के पाँच-सात थप्पड जमा दिये और कहा कि “अबी ते ऐसी वाहियात कविता बनावै है, आगे चल के न जाने का करेगी। खबरदार जो अबते आगे ऐसे छन्द-बन्द बनाये। सुनते है कि गुरू की प्रेम पूर्ण इन धौलो ने सत्यनारायणजी की शृङ्गाररस की कविता को कम कर दिया; लेकिन सिर्फ थोडे दिनो के लिये ही। बावाजी की इन धौलो की याद भूलकर फिर भी सत्यनारायण वैसे ही 'वाहियात छन्द-वन्द' बनाने लगे!
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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