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________________ १८ प० सत्यनारायण कविरत्न . एक हू बार अरी वजनागरि धारि दया किन कठ लगावै । चारु चरित्रन हू ते रिझाय जिवाय के क्यो न बडो यश पावै। और न चाहत मै कछुरी सतदेव जू एक यही चित भावै। प्यारी प्रवीन सनेह सो हेरि के कंठ लगो तन ताप नसावै । दूसरो के दोहो पर सत्यनारायणजी ने अपनी कुछ टीकाएँ भी की थी। यथा - दोहा-हरी कंचुकी जरद कुच, अलसानी तिय भोर । मनहु चन्द बदरी छिप्यो, निकसत आवै कोर ॥ टोका–कारी किनारी हरी कुच कचुकी सावन कारी घटा सी सुहावै । पीत उरोज लसैं विधसी युग देख चकोर सदा मन भावे । भामिनसोई भली बिधि चाय सो प्रात समै कछ ज्यो अलसावै । बारिद तैं दुबको निकरी जनु चन्द्रकला त्रय ताप नसावे । दोहा-सहज सहेलिन सों जु तिय, बिहॅस बिहँस बतगत । सरद चन्द की चांदनी, मन्द परत सी जात ।। टीका--सहज सहेलिन सो हँसि-हँसि प्यारी वह, घूघट सों मुंह निकारि बतराति जात है। लंक लचकति अति, कुच मचकत मंजु, बनी है सुढार अरु रग वरसात है। जंघन' सुढाली अरु चाल मतवाली पुनि, पैंजनी पगन झनकार सरसात है। भाषत सो प्यारी ऐसी जानि परै सत्यदेव, चन्द की ज्यों ज्योति मन्द परत सी जात है।
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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