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प० सत्यनारायण कविरत्न
कुन्दनलालजी के पद-पद्म-पराग के प्रबल प्रताप से कविताङ्कुर उत्पन्न हो गया । तभी से हम दोनो उठने-बैठने लिखने-पढने इत्यादि कार्यो मे 'एक प्राण दो शरीर' सदृश रहने लगे। इनकी माता रानी सर्दारकुंवरि ast पडित थी । अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा उन्हे तुलसीकृत रामायण अधिक प्रिय थी और उस पर उनकी पूर्ण श्रद्धा थी । जब कभी उनके दिल में आजाती तो अनेक कठाग्र चौपाइया सुना डालती, ओर उनसे ऐसे उत्तमउत्तम अर्थ कहती कि मैने ऐसे योग्यतापूर्ण अर्थ बड़े-बड़े विद्वानों में ही
है ।
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बाल्यावस्था मे सत्यनारायणजी का स्वभाव कुछ उग्र था, लेकिन वर्नाक्यूलर मिडिल पास करने के बाद यह उग्रता जाती रही थी । शान्तिप्रियता, परोपकारिता और मिलनसारी इनमे बहुत थी । हिन्दी - मिडिल पास करने के बाद इन्होने कुछ उर्दू का भी अभ्यास किया था; लेकिन थोड़े दिनों के ही लिए । सत्यनारानणजी अपने पुराने सहपाठियों के साथ किस तरह मिलते थे, इसका यहा एक दृष्टान्त देना अनुचित न होगा ।
ता० २० जून सन् १९११ ई० को बमरोली- कटारे के मन्दिर पर मेरी उनसे अकस्मात् भट हो गई । यह साक्षात् भेट ११ वर्ष पीछे हुई थी, यद्यपि पत्र-व्यवहार हम लोगो मे कभी-कभी हुआ था । हृदयालिजन के पश्चात् वार्त्तालाप होते-होते जब बहुत देर हो गई तो रामचन्द्र नामक एक आदमी ने, जो पंडितजी से अपरिचित थे, मुज जेम क्षुद्र मनुष्य के साथ सत्यनारायण जी का बातचीत करते देख बड़ा आश्वयं किया और मेरी ओर संकेत करके पूछा - "ये कहाँ रहते है ?" कविरत्नजी आंखों में आंसू भर के बोले - “ये मेरे हृदय में रहते है ।" यह सुनकर मैंने मन-ही-मन उनके कोमल हृदय को अनेक धन्यवाद दिये । तदन्तर मैने अपनी 'श्रीमद्रामयश दिनकर' के, जो अभी अधूरी पड़ी है, और सत्यनारायण ने उत्तररामचरित' के पद्य परस्पर दिखाकर बड़ा आनन्द उठाया ।
सत्यनारायणजी अपने पुराने सहपाठियों के साथ बड़ी सरलता और