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________________ विद्यार्थी-जीवन ११ स्वाभाविकता के साथ मिलते थे, और उनके प्रेम की अकृत्रिमता ही उनके जीवन मे सबसे अधिक मनोहर वस्तु थी।" सत्यनारायणजी के एक अन्य सहपाठी श्रीयुत् मूलचन्द गोस्वामी (पाराशर कम्पनी आगरा) लिखते है -- __सत्यनारायणजी मेरे साथ मिढाखुर मे दो वर्ष तक पढ़े थे। कविता करने का शौक उन्हे तभी से था। बडे प्रेम के साथ वे अपने गांव की बोली मे-- देखौ अँगरेजन को खेल, निकार्यो माटी मे ते तेल, जरै जैसे धिय कैसो दिवला । गाया करते थे। उनकी आदत भी मिलनसार थी और वे बडे हँसोड़ थे। हम लोगो के पिता जब गाँव से आते थे, तो उनके चले जाने के बाद सबकी हूबहू नकल उतारकर सहपाठियो को खूब प्रसन्न करते थे। इनकी माता जब आती थी तो सहपाठियो को अपने लड़के की तरह प्यार करती थी। सत्यनारायणजी अपनी माँ के लाडले होने के कारण ऐसे चलते थे कि हम लटको ने उनका नाम 'पङ्गा' रख दिया था। दरवारीलाल के पिता की-सी पगड़ी बांधकर उनकी बोली की नकल करते थे। दरबारीलाल टोटा होने पर भी धूंसा मारने मे पटु था। उसके शरीर मे बल भी था। जब सत्यनारायण पर क्रोध करके कोई आता भी तो वे इस तरह बैठ जाते और हा-हा खाने लगते थे कि वह भी अच्छा मालूम होता था । मैं छोटा होने पर भी उनकी कलाई को मरोड़ देता था, क्योकि उनके हाथ भी नाजुक थे और शरीर मे बल भी कम था । लेकिन पढने मे वे बड़े तेज थे। व्याकरण, हिसाब और गुटका की कविता मे तो अब्बल ही रहते थे । लिखने-पढने मे अच्छे रहने से रौब भी जमाते थे; पर गर्व से नही, हँसी मे। सहपाठियो को सवाल बता दिया करते थे। बराबर हंसमुख रहते और सबसे प्रेम करते थे। उनके सरल तथा निष्कपट प्रेम का एक उदाहरण देना अप्रासङ्गिक न होगा।
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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