________________
प० सत्यनारायण कविरत्न और सिर सोने की खौर लागि रहे मोती। बिन सीसफूल सिन्दूर वाधि लई चोटी। चितवन ते मारे लेइ दृष्टि बल खोटी। नाक नथ तोता की भारी। दुलरी-तिलरी परी गरे मे
सुन्दर खंगवारी। वचन कोइल के ते प्यारे, नैन के बान बंचि मारे । उठे खसबोई तन मे ते । छोडि-छोडि के ध्यान मुनीसुर भाजत बन मे ते । हार हमेल ररकि हियरा पै अॅगिया जरद किनारी
पैदा भई राजदुलारी।
तह एक पुरुष बलि आयो, जे बिगिर वाप को जायो । बापुइ में ते कढि आयो। ता नर की महिमा कहै सुनी चित लाई। धर लायी कैसो भेष नारि जनु पाई। सो सुन्दर रूप देखि नारि को नर ने देह बिसारी----
पैदा भई राजदुलारी। इस रंगति मे मोहिनी का स्वरूप जाटिनियों के रूप के अनुरूप वर्णन किया गया है। 'नाक नथ तोता की भारी' और 'गरे में सुन्दर संगवारी, पहननेवाली जाटिनियो को देखकर, मोहिनी के स्वरूप का भी वर्णन रगतिरचयिता ने वैसा ही कर दिया है। कभी-कभी सत्यनारायण एक 'देवीस्तुति' भी गाया करते थे जिसका प्रारम्भ इस प्रकार था :
सुमिरूं आदि सुमिरिनी माता बैठ हिये में आ मेरे, अरे पर्वत में भवन कटमा, कलस धरै ररकैमा।