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करना चाहता हूँ कि मित्रता का दम भरनेवाले और बात-बात पर सहृदयता की डीग मारनेवाले हम लोग उसे पढे, सोचे और हो सके तो कुछ शिक्षा भी ग्रहण करे। (चतुर्वेदीजी इस “दोस्त-फरोशी' के लिये मुझे क्षमा करें)। 'भारतीय हृदय' ने लिखा था :___ ... - ‘सत्यनारायण के अन्य मित्र उन्हे भले ही भूल जाय; पर मै कभी नहीं भूल सकता। जितना लाभ उनको जोवनी से मुझे हुआ है, उतना किसी दूसरे को नहीं हो सकता। उनकी कविताओ ने मेरा मनोरंजन किया है, उनके गृहजीवन के दुखान्त नाटक ने मुझे कितनी ही बार रुलाया है, उनकी नि स्वार्थ साहित्य-सेवा ने मेरे सामने एक अनुकरणीय दृष्टान्त उपस्थित किया है, उनकी 'हृदय-तरङ्ग' ने मुझे कीति प्रदान की है, उनकी सरलता के स्मरण ने मुझे समय-समय पर अलोकिक आनन्द दिया है, (उनके-सा भोलापन भला कहा मिल सकता है ?) आर उनके निष्कपट व्यवहार और प्रेमपूर्ण स्वभाव की स्मृति ने मेरे हृदय को कितनी ही बार द्रवित करके पवित्र किया है ।... ... ... 'जीवन के कण्टकाकीर्ण पथ मे जब निराशा के मेघ हमे भयभीत करेंगे, जब चारो ओर व्याप्त 'व्यापारिकता' का अन्धकार चित्त को बेचैन करेगा, जब धन का भूत साहित्य-क्षेत्र को अपनी भयकर क्रीड़ाओ से कलङ्कित करेगा, उस समय सत्यनारायण का निस्वार्थ साहित्यमय जीवन विद्यज्योति का काम देकर हमारे पथ को आलोकित करेगा।"... . 'सत्यनारायणजी उस संक्रामक भयंकर रोग से, जिसका नाम व्यापारिकता Commercialisim है और जो कुछ हिन्दी-साहित्य-सेवियो को बेतरह ग्रस रहा है, बिलकुल मुक्त थे। न उन्होंने धन के लिये लिखा न कीति के लिये, जैसे कोकिल का स्वभाव ही मधुर स्वर से गान करना है उसी प्रकार उस अज-कोकिल का स्वभाव ही सुन्दर कविता का गान करना था। ... ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे अनेक साहित्यसेवी, 'सहृदयता' के पीछे हाथ धोकर पड़े है, दूसरों को उत्साहित करना, दूसरे के गुणो की प्रशंसा करके उन्हें ऊँचे उठाना, धैर्य-पूर्वक दूसली की आकांक्षाओं को सुनना और उन्हे यथोचित