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________________ सत्यनारायणजी की कुछ स्मृतियाँ २०१ और कहने लगे---"मोइ तो ब्रज मेंहो छोड़िके अन्त कहूँ अच्छौ नाय लगेगी। मै तो ब्रज में ही आऊँगो क्योंकि मेरी ब्रज की ही वासना है।" __ मेरी उनकी ये बाते श्री सेवाप्रसाद वकील के बँगले के बगीचे से हुई थी। इतने में एक घोड़ा गाडी आई जिसमे बैठकर हम दोनो प्रदर्शिनी देखने के लिये चले गये। जब सत्यनारायणजी ने सम्मेलन के अवसर पर अपनी कविता पढी तो उसके पूर्व रसखान के कवित्त पढ़े थे। "जो खग हो तो बसेरौ करो वहि कालिन्दी कूल कदम्ब के डारन ।" कविता-पाठ करने के बाद आप मेरे पास आकर मेरी आधी कुर्सी पर बैठ गये। मैने कहा-'आपने रसखान के कवित्त क्यों पढ़े, उनका यहाँ क्या अवसर था ?" कविरत्नजीने कहा--"मैने सम्मेलन के भ्राताओ के सामने ये कवित्त इसलिये कहे हैं कि जिससे ये सब साक्षी हो कि चलती बार अवश्य, भगवान से, सत्य ने, चाहे किसी रूप मे हो, ब्रजवास ही माँगा था"। मैने कहा कि बस रहने दीजिये, मृत्यु का विनोद मुझे नहीं सुहाता।" आपने कहा--"हरि इच्छा।" __इन बातो से अब मुझे निश्चय हो रहा है कि जैसे कविरत्नजी विद्वान्, सरल स्वभाव और अपने देश-वेष-भाव के दृढ भक्त थे वैसे भगवान के भी प्रेमी भक्त थे जो अपनी मृत्यु को जानकर सावधान हो गये थे।"
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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