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पं० सत्यनारायण कविरत्न
कविरत्नजी विनोदी बड़े थे । गिरिधरशर्माजी की खडीबोली के कवितापाठ के पश्चात् अपनी कविता पढने के पूर्व कविरत्नजी ने कहा था“सज्जनो, जाके मुँह मे रसीली दाखें लग गई है वाद कडुई निबोरी कैसे भावेंगी ।" यह विनोद उन्होने खड़ीबोली और ब्रजभाषा के पद्यों के विषय मे किया था ।
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कवि रत्नजी खडीबोली मे भी कविता कर लेते थे; पर आप ब्रजभाषा के पूरे पक्षपाती थे । एक बार मैने उनसे पूछा --" इस समय खड़ीबोली की कविता का प्रवाह इतना क्यो बह रहा है ?" आपने उत्तर दिया--" पुरानी
कविता मे धड़के गड़क्के छडक्के इत्यादि है इस कठिनता के कारण तथा पुरानी ब्रजभाषा मे शृङ्गार के कारण" । मैंने कहा -- “ फिर आप पीछे क्यो लौटते है ?" कविरत्नजी ने जवाब दिया--" जिसके लिये विश्वनाथ ब्रजनाथ हुए उस ब्रजभाषा से मुंह मोड़ना परमात्मा को रुठाना है । इस समय ब्रजभाषा मे पद्य ऐसे होने चाहिए कि पुराना जटिलपना न रहे और भाषा ब्रज की होते हुए भाव नूतन हो ।"
इन्दौर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में जब वे वहाँ गये थे तो मुझसे मिलते ही उन्होने कहा था “लेउ जे "मालती माधव" के प्रूफ़ देखो, पर पैले मोइ कछू खाइबे को देउ, मे भूखन मर रही हो ।" इसी तरह विनोद करते हुए कुछ फल खाकर कविरत्नजी ने कहा- ''यह सम्मेलन अच्छी सान को दीखि रह्यो है । जा को कारन गाँधीजी को यश और यहाँ के कार्यकर्तन को प्रेम है ।"
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फिर आपने मुझसे कहा--'उत्तर रामचरित्र और " मालती - माधव " तो आपने देखई लयों पर भरतपुर की हिन्दी साहित्य समिति के मंत्री श्री अधिकारी जगन्नाथदास के पास मेरी "हृदय-तरग" है । सो उनसे कहिके वाइ छपाइ डारियो; क्योकि वामे मेरे भावना-भरे पद्य है ।"
यह सुनकर मैने कहा---'" आप तो मेरे ऊपर ऐसा भार डाल रहे हैं मानों आप कही जा रहे हो ।" कविरत्नजी की आँखों में आँसू आ गये