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मेरी तीर्थ-यात्रा
३० अगस्त १६२४ प्रात: काल का सुहावना समय था । सवा छै बजे थे। बादल घिरे हुए थे। कभी-कभी दो-चार बूंदे भी पड़ जाती थी। मै ताँगे मे बैठा हुआ धधूपुर की ओर चला जा रहा था। अकेला ही था। ___सत्यनारायण को मृत्यु के बाद यह मेरी चतुर्थ धाँधूपुर-यात्रा थी। सत्यनारायण के कई मित्रो से मैने धाँघूपुर चलने की प्रार्थना की थी पर उनके हृदय मे वहाँ चलने के लिये कोई विशेष उत्साह या प्रेम नही पाया गया था। सत्यनारायणजी का एक Enlargement बड़ा चित्र मेरे साथ था और उनकी यह जीवनी तथा जीवन-चरित्र का मसाला भी मेरे साथ हो था। चित्र को मै बड़ी सावधानी से ले जा रहा था। ताँगेवाले से मैने कह दिया था--"देखो भाई, तॉगा धीरे-धीरे चलाना, कहीं मेरी तसवीर टूट न जावे।" नगर के कोलाहल से दूर किले के पास होता हुआ मेरा ताँगा चला जा रहा था और मै सोच रहा था-"सत्यनारायणजी के कोई मित्र साथ क्यों नहीं आये ? उसी समय मुझे कवि-सम्राट रवीन्द्रनाथ का एक पद्य याद आ
गया
"एकला चलो, एकला चलो, एकला चलौरे । यदि तोर डाक सुने केउना आसे,
तवे एकला चलोरे ॥"* मै सोच रहा था यह वही सड़क है जिसपर कई वर्ष पूर्व अपनी कविता पढते हुए धुन में मस्त सत्यनारायण प्रायः दीख पड़ते थे। हाँ, कभी
* अर्थात्--यदि तुम्हारी पुकार सुनकर कोई न आवे तो अकेले ही चलो, अकेले ही चलो, अकेले ही गलो ।