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________________ सत्यनारायणजी की कुछ स्मृतियाँ १७६ इसके उत्तर मे कविरत्नजी ने केवल यही लिखा--'आप सकुटुम्ब पधारकर विवाह की शोभा बढावे और जान-बूझ अजुगत का स्वाभाविक परिणाम आप स्वयम् देखे । (शब्दान्तर सम्भव है, पर अर्थान्तर नहीं) यह लिखना व्यर्थ है कि वह अपने विवाह से सुखी नहीं हुए। एक बार उन्होने आगरे मे मुझसे कहा था कि अब मै भरतपुर जाने मे सकुचाता हूँ। इसके पश्चात् एक दिवस दीग मे अचानक काकाजी से उनकी भेट हो गई। विवाह हो जाने के बाद वे श्री गिरिराज की परिक्रमा के लिये हर पूर्णिमा को जाया करते थे। यह उनको बीमारी की मनौती के लिये करना पड़ा था। काकाजी में मुंह छिपाते थे । परन्तु एक बार गोवर्धन से सत्यनारायण दीग पहुँचे। मेरे काकाजी उन दिनो वही पर नाजिम थे । मिलना पडा। काकाजी को देखते ही लज्जा, पश्चात्ताप आदि के कारण वे एकादम रो पडे। । भरतपुर मे राज्य-भर मे सर्वत्र हिन्दी-पुस्तको की खोज की गई थी। उनमे कई नवीन और अलभ्य पुस्तको का पता चला था। इसमे काकाजी को कविरत्नजी से बहुत सहायता मिली । यथार्थ मे उन ग्रन्थो के पढने से उनकी कविता-शक्ति बहुत बढ गई थी। इस बात को उन्होने कई बार स्वीकार भी किया था। काकाजी की इच्छा थी कि 'भरतपुर-राज के कवि' नामक एक पुस्तिका कविरत्नजी की सहायता से बनाई जाय। उन्होंने "मालतीमाधव" का अनुवाद मुख्यतः भरतपुर ही मे किया। कभी-कभी किसी श्लोक मे जो कठिनता प्रतीत होती थी वह राज पण्डित श्रीयुत गिरिधारीलालजी से पूँछ लिया करते थे। 'मालतीमाधव' 'के अनुवाद में उन्हे कविवर सोमनाथ कृत 'माधव-विनोद' से बहुत सहायता मिली थी। इस बात को कविरत्नजी ने स्वयम् “मालतीमाधव" की भूमिका मे लिखा है । शोक की बात है कि राज-कवि सोमनाथ कृत "माधव-विनोद" का कविरत्नजी की मृत्यु के बाद से पता नहीं ! यह अलभ्य ग्रन्थ पंडितजी की निजी पुस्तको के साथ था और वही से लापता है। उनकी अकाल मृत्यु के कारण 'भरतपुर राज के कवि' शीर्षक पुस्तक अधूरी ही रह गई है।
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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