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पं० सत्यनारायण कविरत्न एक बार हम लोग कविरत्नजी को यज्ञोपवीत के एक उत्सव में अनूपशहर ( जिला बुलन्दशहर ) मे गङ्गा-तट पर एक रम्य स्थान में ले गये थे। यह बात १९१५ ई० ( फर्वरी) की है। वहाँ अतिथि-स्वागतार्थ निम्नलिखित अडिल्ल छन्द की गुजराती कविता पढ़ी गई थी--
महमानो ओनहाला पुन. पधार जो। तम चरणे अम सदन सदैव सुहायजो ।। करजो माफ हजारो पामर पाप जो। दिनचर्या-मॉ प्रमु पासे पण थाय जो ।। उन्नति-गिरिशृङ्गोना बसनारात मे। उतस्या रडू आहेशो पुण्य प्रभाव जो ॥ शुश्रूषा सारी ना हमने आवडी ।
लेश न लीधो ललित उरो नो लाभ जो ॥ इसके उत्तर के लिये उनसे आग्रह-पूर्वक प्रार्थना की गई। कविरत्नजी ने इसका उत्तर इसी छन्द मे बनाकर गुजराती की गरबी चाल पर गाया। उनका उन र सरसता तथा मधुरता से पूर्ण है।
सुजन सदाही दया स्वजन पर कीजियो । जोरि जुगल कर मांगत यह वर दीजियो । प्रिय प्रेमीले बड़े आप सरदार हो । उच्च विचार सुसज्जित परम उदार हो । करी हमारी जो शुश्रूषा है धनी । किन्तु तुम्हारी हम पै नहि सेवा बनी ।। लहि गङ्गा को तीर भुवन मन-मोहिनो । प्रकृति-छटा मन-भावन पावन सोहिनो ।। बड़ी असुबिधाएँ जो जो तुम्हने सही । दे कोटिन धनबाद उऋण तोऊ नही । हम लोगन की लीला चित न बिचारियो। आप बड़े सत अपनी ओर निहारियो ।