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________________ १७८ प० सत्यनारायण कविरत्न गोद की एक दवा बताई जिससे उन्हे शीघ्र ही आश्चर्यजनक लाभ हुआ। इस ओषधि को कविरत्नजी बहुत बडाई किया करते थे। यहाँ तक कि इसे उन्होने प्रयाग से प्रकाशित होनेवाले 'विज्ञान' पत्र मे भी छपवा दिया था। एक दिवस तो बबूल के गुण-गान मे निम्नलिखित दोहा भी बनाकर मुझे दिया था __ कीकर तू कण्टक सहित, पर गुन गन भरपूर ! निज पञ्चाङ्ग प्रभावसो, करत रोग सब दूर ॥ उनको गुजराती भाषा-साहित्य और भोजन बहुत रुचिकर था। जब हममे से कोई उनसे ब्रजभाषा मे बोलता तो कविरत्नजी हमको गुजराती बोलने को बाध्य करते थे। उन्होने गुजराती बोलना कुछ-कुछ सीख भी लिया था। मेरे एक गुजराती पत्र का उत्तर कविरत्नजी ने गुजरातीमिश्रित खडी बोली मे दिया था। सेन्टजान्स कालिज के प्रोफेसर श्रीयुत कान्तिलाल छगनलाल पण्डया ने उन्हें उत्तर रामचरित का द्विवेदी मणिभाई नमुभाई बी० ए० कृत गुजराती भाषान्तर भेट किया था, जिसको उन्होने गुजराती भाषा सीखने के लिये भरतपुर में कई बार पढा था। नागरी लिपि मे प्रत्येक अक्षर पर एक आड़ी लाइन लिखनी पड़ती है जिससे कविरत्नजो बहुत घबराते थे। इसी कारण उन्होंने गुजराती लिपि सोखी। 'मालतीमाधव" के अनुवाद के छन्द उन्होने संस्कृत "मालतीमाधव" की पुस्तक के कोने पर लिखे है उसकी लिपि गुजराती मिश्रित नागरी है। पूज्यपाद काकाजी उनके विवाह से सन्तुष्ट न थे । काकाजी ने कविरत्नजी के अन्य मित्रो को भी यह सम्बन्ध तोड़ने के लिये बाध्य किया था; परन्तु सब व्यर्थ हुआ । जब सम्बन्ध पक्का हो गया था तब काकाजी ने उन्हे पत्र द्वारा यह दोहा लिख भेजा था--- जान-बूझ अजुगत करे, तासों कहा बसाय । जागत ही, सोवत रहे, कैसे ताहि जगाय ॥ (वृन्द)
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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