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सत्यनारायणजी की कुछ स्मृतियाँ
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बाते होती रही । फिर कविरत्नजी हम लोगो को अपने आगरे के 'विश्राम - निलय' के दर्शन कराने ले चले। वहाँ भी अमित आनन्द रहा । कवितापाठ, सङ्गीत- गान, काव्य-समालोचना क्रम क्रम से सब का आदर हुआ । स्वअनुवादित " मालतीमाधव" नाटक के उत्तम स्थलो के अनुवाद आपने पढकर सुनाये । स्वरचित पुस्तक तथा " चतुर्वेदी " की एक जिल्द और कुछ प्रतियां उपहार मे प्रदान करने की कृपा की । हमारे लिये स्नान का समय टाल दिया, "भोजन पोछे होता रहेगा' यह कहकर हमे कथारस मे प्लावित रखा । कहाँ तक कहे हमारे जैसे सामान्य व्यक्ति के प्रति प्रथम साक्षात् के समय ही जैसी आत्मीयता और विमल बन्धुता - पूर्ण प्रेम-भावना का परिचय उन महान आत्मा ने दिया वह उनके स्वर्ग-सुलभ मानव-दुर्लभ स्वभाव एवं देवत्व का पूर्ण परिचायक है ।
उनसे विदा होकर हम लोग अपने वास स्थलपर तो आ गये पर मन यही चाहता था कि कविरत्नजी के साथ हम कुछ काल और रहते एवं उनके 'घाँधूपुरा ' तथा कालिन्दी - कलस्थ, कीर- कोकिल केका केकी के कलगान से मुखरित सुरम्य कुज पुंज तथा वनकानन के दर्शन मे अपूर्व आल्हाद लहते । पर वह सुयोग अब कहाँ ।"
श्रीयुत भवानीशंकर याज्ञिक,
भरतपुर
कविरत्नजी सॉस के रोग से पीडित थे ओर अपनी चिकित्सा कराने hoot काकाजी (पूज्यपाद पडित गयाशकरजी बी० ए०) के आग्रह से भरतपुर आये थे । उन दिनो उनकी दशा बहुत शोचनीय थी । महीनों से खाँसी के कारण रात को सोये नही थे । कविरत्नजी नीद न आने के कारण अपना मन कविता- गान मे लगाया करते थे । लगभग रातभर उनका जागरण-सा हुआ करता था। इस जागरण को कविरत्नजी 'नाइट स्कूल' कहा करते थे । उनका इलाज भरतपुर मे वैद्य विहारी लालजी तथा डा० ओकारसिहजी ने किया था । परन्तु परिणाम सन्तोषजनक नही हुआ । अन्त में एक महात्मा ने कविरत्नर्जी को बबूल की छाल तथा उसके