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पं० सत्यनारायण कविरत्न जायगा । कदाचित यह उस छन्द का प्रभाव है जो मैने उत्तर-रामचरित्र के अनुवाद मे लिखा है । रामचन्द्रजी सीताजी के प्रति कहते है-'हा हा देवी फटत हृदय यह जगह शून्य दरसावे । आप कहते थे कि गुरूजी विन जगत् शून्य-सा ही हो गया । एकबार “सरस्वती" में बाबू मैथिलीशरण जी गुप्त की एक कविता निकली। उसका पहला पद यह था---'नर होन निराश करो मनको" कविरत्नजी बोले कि ऐसा लिखना ठीक नहीं; क्योकि पढने मे यह पद ऐसा भी आ सकता है न रहो न निराश करो मनको ।"
जब आपको राजयक्ष्मा का रोग हो गया था और बहुत कष्ट था तब भी आपकी काव्यस्फूर्ति जैसी की वैसी बनी थी। उन्ही दिनो आपने लिखा था
"बस अब नहि जात सही, बिपुल बेदना बिविध भॉति जो तन मन ब्यापि रही।" एक बार आप संक्रान्ति पर गंगा-स्नान करके इक्के मे लौट रहे थे । सड़क की उँचाई-निचाई के कारण इक्के में बहुत दचके लगते जाते थे। उसी समय इक्के मे बैठे-बैठे आपने यह पद्य लिखा था
"दया ऐसी कीजै भगवान,
जासो हिन्दू जाति करे यह प्रेम-गङ्ग असनान । मैने आपसे कई बार झॉसी पधारने को कहा था। पर आप यही कह दिया करते थे-'जब झाँसी के झांसे में आजाऊँगा तब वहाँ भी पहुँच जाऊँगा । परन्तु आप तो किसी दूसरे के ही झाँसे मे आगये और निष्ठुर होकर चल दिये । किसी की परवाह भी न की !"
श्रीयुत केदारनाथजी भट्टएम० ए०,
एल०-एल० बी० (आगरा) "सत्यनारायण से मै प्राय सिड़ी कहा करता था और जिस भाव से मैं कहता था उसी भाव से इस "उपाधि को वह ग्रहण कर लेता था। अब