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________________ १७० पं० सत्यनारायण कविरल सम्पादक को उन्होने अपनी कविता से आभारी न किया हो । नगर मे ऐसा कोई विद्यार्थी न था जो उनका मित्र न हो। उन्होने अपनी विद्या और कवित्व शक्ति को विनयगुण से गौरवान्वित किया था। सत्यनारायणजी विनयशीलता, निरभिमानता और हास्य तथा माधुर्यमय करुणा की जीवित मूर्ति थे । विशेषत. करुणरस की कविता सुनाते समय कविता के भाव उनके मुख पर व्यजित हो जाते थे और वे करुण रस की साक्षात् मूर्ति बन जाते थे। समय की अनन्तता मे उनको पूर्ण विश्वास था। उनके जीवनादर्श ने महात्मा तुलसीदासजो के निम्नलिखित पद को अपनाया था। कबहुँक हौ यहि रहनि रहौगो।। श्रीरघुनाथ कृपालु कृपा ते सन्त सुभाव गहौगो ।। यथा लाभ सन्तोष सदा काहू सो कछु न चहौगो । परहित निरत निरन्तर मन क्रम बचन नेम निबहौगो॥ परुष वचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौगो। विगत मान सम शीतल मन परगुण नहि दोष कहौंगो॥ परिहरि देह-जनित चिन्ता दुख-सुख-सम बुद्धि सहौंगो। तुलसीदास प्रभु यहि पथ रहि अविचल हरि-भक्ति लहौगो ॥" श्रीयुत गुलाबरायजी के उक्त कथन से मै पूर्णतया सहमत हूँ। यहाँ मै यह कह देना चाहता हूँ कि सत्यनारायणजी की विद्वत्ता व कवित्व शक्ति ने मेरे हृदय को उतना आकर्षित नही किया जितना उनके सरल स्वभाव, निष्कपट व्यवहार और सहृदयता ने । शान्ति-आश्रम मथुरा मे स्वामी रामतीर्थ के सामने अपनी कविता पढते हुए सत्यनारायण मेरे हृदय को उतना आकर्षित नहीं करते, जितने मिढाखुर के मदर्से मे 'देखो अंगरेजन को खेल, निकारयो माटी मे ते तेल । जरै जैसे घिय कैसौ दिवला!'' गाते हुए सत्यनारायण । 'कुली प्रथा' या 'कामागाटामारू-दुर्घटना' के लिये शोकोत्पादक कविता पढ़नेवाले सत्यनारायण के स्वर से मेरी हृदय
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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