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चरित्र पर एक दृष्टि
१७१ तंत्री उतनी झंकृत नही होती, जितनी गृहजीवन से पीडित “भयो क्यों अनचाहत को सग" गानेवाले साश्रुनयन सत्यनारायण के करुणोत्पादक शब्दो से । सत्यनारायण की वह मूत्ति, जब कि वे आगरा प्रा.तीय सम्मेलन की स्वागत-समिति के प्रधान की हैसियत से अपना विद्वत्तापूर्ण भाषण पढ रहे थे, मुझे स्मरण नहीं आती, लेकिन मधुर मुसक्यान के साथ ठेठ ब्रजभाषा बोलने वाले सत्यनाराण की स्मृति मे मैने कई बार ऑसु बहाये है। इसी प्रकार सर्वसाधारण द्वारा प्रशसित उनकी "श्रीसरोजिनी षटपदी" ने मेरे मनको उतना प्रफुल्लित नही किया जितना “कली री अब तू फूल भई" नामक उस कविता ने किया है जो एक प्राइवेट पत्र मे किसी को भेजी गई थी। लोग कहते है कि करुणा रस की कविता करने मे सत्यनारायण सिद्धहस्त थे, उत्तर रामचरित्र के करुणामय दृश्यों का अनुवाद उन्होने बडी सफलता से किया है, लेकिन मुझे उनका कोई भी पद्य इतना करुणाजनक नही दीख पड़ा जितना उनके दुखान्त जीवन-नाटक का अन्तिम पट | बात वस्तुतः यह है कि Satyanaryan was much greater as a man than as a poet सत्यनारायण जिस कोटि के कवि थे, उससे कही ऊँचे दर्जे के 'मानव' थे।
ग्रामीण मित्र क्या कहते है ? सत्यनारायणजी का एक छोटा-सा फोटो लेकर मै धाधूपुर गया था उसे मैने वहाँ के गँवार किसानों को दिखलाया । देखकर उनकी आखो मे आँसू झलक आये। वे कहने लगे--"हॉ, महाराज, जे तो ऐन-मैन सत्यनरायन ही बैठे है ।" एक ने कहा--"का कहै महाराज | हम चारि आदमी बड़े मित्र है सो हमारी तो मानो एक भुजाई टूटि गई।" दूसरा बोला-"हल चलाउते बखत कुअन पै राम लेत भये, खेत पै, खलिहान में, वे हमेस हमारे ई साथ रहते !' तीसरा कहने लगा--"सत्यनरायन पैले हमको अपनी कविता सुनाइ देते और जब हम कहि देते कि ठीक है तब वे बाइ छपवाइबे भेजते । बाकी तो रहि-रहि के यादि आवति