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________________ ( १२ ) ही रहा था कि आपने तुरन्त अपना यह मौखिक 'विजिटिंग कार्ड' हृदयहारी टोन में स्वय पढ़ सुनाया--- "नवलनागरी नेह-रत, रसिकन ढिंग बिसराम । आयी हौं तुव दरस की, सत्यनरायन नाम ॥" मुझे याद है, उन्होंने 'निरत नागरी' कहा था, (२२५ तथा २२८ पृष्ठ पर, इसी रूप मे, यह छपा भी है) 'निरत' 'रत' में पुनरुक्ति-सी समझकर मैने कहा--'नवलनागरी' कहिये तो कैसा ? फिकरा चुस्त हो जाय । हस्बहाल मजाक (समयोचित विनोद) समझकर वे एक अजीब भोलेपन से मुसकराने लगे, बोले---"अच्छा, जैसी आज्ञा ।" । यह पहली मुलाकात थी। इस मौके पर शायद दो दिन पं० सत्यनारायणजी ज्वालापुर ठहरे थे। उनके मुख से कविता-पाठ सुनने का अवसर भी पहली बार तभी मिला था। सत्यनाराणजी से मेरी अन्तिम भेंट दिसम्बर १९१७ में हुई थी, जब वे 'मालतीमाधव' का अनुवाद समाप्त करके हम लोगों को---मुझे और साहित्याचार्य श्री पण्डित शालग्रामजी शास्त्री को---सुनाने के लिये ज्वालापुर पधारे थे । परामर्शानुसार अनुवाद की पुनरालोचना करके उपाने रा पहले एक बार फिर दिखाने को वे कह गये थे, पर फिर न मिल सके। उनके जीवनकाल में दो बार मैं धाँधूपुर भी उनसे मिलने गया था। एक बार की यात्रा में श्री पं० शालग्रामजी साहित्याचार्य भी साथ थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् भी दो-तीन बार में धांधूपुर गया हूँ और सत्यनारायण की याद में जी खोलकर रो आया हूँ। अब भी जब उनकी याद आती है, जी भर आता है। एक प्रोग्राम बनाया था कि दो-चार ब्रजभाषा-प्रेमी मित्र मिलकर छ: महीने ब्रज में धूमें, ब्रज की रज में लोटें, गाँवों में रहकर जीवित प्रजभाषा का अध्ययन करें, ब्रजभाषा के प्राचीन ग्रन्थों की खोज करे, ब्रजभाषा का एक अच्छा प्रामाणिक कोष तैयार करे। ऐसी बहुत-सी.
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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