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( १३ ) बातें सोची थी, जो उनके साथ गयी और हमारे जी मे रह गयीं। अफसोस !
"ख्वाब था जो कुछ कि देखा, जो सुना अफ़साना था !"
सत्यनारायण के कविता-पाठ का ढंग वड़ा ही मधुर और मनोहारी था। सहृदय भावुक तो बस सुनकर बे-सुध से हो जाते थे, वे स्वयं भी पढते समय भावावेश की-सी मस्ती में झूमने लगते थे। ब्रजभाषा की कोमल कान्त पदावली और सत्यनारायणजी का कोकिलकण्ठ, "हेम्नः परमामोद "--सोने-सुगन्ध का योग और मणिकाञ्चन का सयोग था ।
पठ्यमान--गीयमान--विषय का आँखो के सामने चित्र-सा खिंच जाता था और वह हृदय-पट पर अङ्कित हो जाता था। सुनते-सुनते तृप्ति न होती थी। कविता सुनाते समय वे इतने तल्लीन हो जाते थे कि थकते न थे। सुनाने का जोश और स्वर-माधुर्य, उत्तरोत्तर बढता जाता था। उच्चारण की विस्पष्टता, स्वर की स्निग्ध गम्भीरता, गले की लोच में सोज़ और साज़ तो था ही, इसके सिवा एक और बात भी थी, जिसे व्यक्त करने के लिये शब्द नहीं मिलता। किसी शायर के शब्दो में यही कह सकते है :--
"ज़ालिम मे थी इक और बात इसके सिवा भी।" सत्यनारायणजी के श्रुति-मधुर स्वर में सचमुच मुरली मनोहर के वंशीरव के समान एक सम्मोहनी शक्ति थी, जो सुननेवालों पर जादू का-सा असर करती थी। सुननेवाला चाहिये, चाहे जब तक सुने जाय, उन्हें सुनाने में उज्न न था। एक दिन हमलोग उनसे निरन्तर ६-७ घंटे कविता सुनते रहे, फिर भी न वे थके, न हमारा जो भरा।
सत्यनारायण स्वाभाविक सादगी के पुतले थे ; गुदड़ी में छिपे लाल थे। उनकी भोली-भाली सूरत, ग्रामीण-वेषभूषा, बोलचाल मे ठेठ ब्रजभाषा