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अन्तिम पत्र और अन्तिम कविता जो मोसो हँसि मिलै होत मै तासु निरन्तर चेरो, बस गुन ही गुन निरखत तिह मधि सरल प्रकृति को प्रेरो। यह स्वभात की रोग जानिये मेरो बस कछु नाही, नितनव बिकल रहत याही सो सहृदय बिछुरन माही। सदा दारुयोषित सम बेबस आज्ञा मुदित पमान, कोरौ मत्य ग्राम को बासी कहा "तकल्लुफ" जाने ॥ कविता सुनने के बाद आपने कहा-भूख लगी है। उनकी गुरु बहन ने कहा “कल के लिये आटा पिसने, गेहूं दे आओ, रोटी अभी हाल बनती है" गेहू की डलिया लेकर सत्यनारायणजी घर के बाहर गये । उनके साथी गेदालाल जाट ने कहा "पडितजी महाराज, पालागन ।" उसे आशीर्वाद देते हुए गेहू डालने चले गये । उधर से लौटे तो गेदालाल ने कहा "-महाराज, दण्डोत" । सत्यनारायण ने कहा--"जब हम गये थे तब तुमने पालागन कही थी और अब हम लौट के आये है तब 'दण्डौत कहते हो, यह क्या बात है ?' गेदालाल ने कहा-'भाई, तब तुम पडितानी के हुकुम से, गये थे। घर-गृहस्थी के धधे मे गेहूँ लेकर गये थे सो हमने पालागन कही। अब तुम खाली हाथ बाबाजी की तरह लौटे हो सो हम तुम्हे दण्डौत करते है !'सत्यनारायणजी गेदालाल की इस उक्ति को सुनकर मुस्कराये और कहा-'तुम तो ऐसोई मजाक करिबौ करौ।" घर पहुँचकर रोटी खाई । उन दिनो धाँधूपुर मे प्लेग फैला हुआ था। हैजे का कही नामोनिशान भी न था ।* प्लेग से बीमार एक स्त्रो को देखने के लिये गये । वहाँ से लौटकर बोले-“जी मचलाता है। जाने क्या हो गया । कसरत कर एक साथ रोटी खाली इससे, या न जाने किससे ।"
"कोरो सत्य ग्राम को बासी कारन कछु न जाने।"
*सत्यनारायणजी उसी दिन धाँधूपुर के निकटवर्ती ग्राम महावन को गढ़ी से धो लेकर आये थे। लेखक ।