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________________ अन्तिम दिवस और मृत्यु नाँहि ।" हम लोग खूब हँसे | पंडितजी ने उससे कहा-"देखौ भैया, "बुरौ मत मानियो । तुम तो हमारे घर केई हो ।" इसी प्रकार हँसते और बातचीत करते हम लोग मोरटक्का स्टेशन पर पहुँचे और वहाँ से रेल मे बैठकर इन्दौर आउतरे। यह मुझे क्या मालूम था कि पंडितजी से हमारा यह अंतिम मिलन है। उनकी स्मृति हृदय-पटल पर चिरकाल तक अङ्कित रहेगी।" इन्दौर से वापिसी ३ अप्रैल को प० सत्यनारायणजी अपने मित्र भगीरथप्रसाद दीक्षित के साथ इन्दौर से आगरे के लिये रवाना हुए। स्टेशन पर पहुँचाने के लिये मै गया था। बडी मुश्किल से जगह मिली ।* जब गाड़ी चलने को हुई तो मैने हँसी मे कहा-'पडितजी एक बात हमारी हू मानिओ। जब रेल चलन लगै तब चढियो और जौलो खडी न होन पावै उत्तर परियो।' --पंडितजी ने हँसकर कहा--"भैया तुम्हारौ कही जरूर मानिङ्गे"। चलते-चलते मेने पंडितजी से कहा-'मै पन्द्रह-बीस रोज बाद धाँधूपुर पहुँचूगा तब तक आप "हृदय-तरङ्ग" ठीक कर रखिये ।" गाड़ी चलदी और पडितजी आँखो से ओझल होगये । अन्तिम पत्र और अन्तिम कविता इन्दौर मे मैने पंडितजी से निवेदन किया था कि मेरी पुस्तक "प्रवासी भारतवासी" के मुख-पृष्ठ के लिए कोई पद्य बनाकर भेजना। ८ अप्रैल १९१८ को पंडितजी का निम्नलिखित पत्र मिला--. *ग्रामीण पोशाक होने के कारण लोग घुसने नही देते थे । जैसे-तैसे मैंने घुसकर जगह की और बिठलाया। पडितजी बोले---"मिर्जई पहिन को जि सजा है।"
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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