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पं०
० सत्यनारायण कविरत्न
इसके ही कारण मै नित स्वच्छन्द विचरता - चरता हूँ । पिजड़े का कुछ खोफ नही है उदर मौज से भरता हूँ ||
अनवारसहेली के सिद्धान्तानुसार "स्वच्छन्द विचरना" दाख- चिरौजी से कही अच्छा प्रमाणित हुआ और यही स्वच्छन्दता हमारे पंडित सत्यनाराणजी के हाथ से, जमाने के फेर ने, छीन ली। उसके कारण जो कष्ट समय-समय पर पंडितजी अनुभव कर रहे हैं वह छुपा नही है प० किशोरी लाल व श्रीदेवकीनन्दन खत्री इतने पर ही तो उपन्यास- गढ डाला करते थे । अजब कशमकश मे डाल रक्खा है । और जो कुछ ब्यथा और चिन्ता अष्ट प्रहर लगी रहती है - वह मन विदानम व विदानम दिलेमन x x x × । पण्डितजी से आप कहे जितने शीशे नेत्र-जल के भरवाकर "स्नानं समर्पयामि" के लिए भेज दिये जावे । x x x पडितजी का कष्ट अधिक नही देखा जाता ।"
उसी समय " झरनो को निर्झरित" करते हुए सत्यनारायणजी के " व्यथित एव विपन्न " हृदय से यह ध्वनि निकली थी
भयो क्यो अनचाहत को सग ।
सब जग के तुम दीपक मोहन, प्रेमी हमहुँ पतंग || लखि तब दोपति - देह शिखा मे निरत बिरह ली लागी । खिचति आपसों आप उतहि यह ऐसी प्रकृति अभागी || यदपि सनेह भरी लव बतियाँ, तउ अचरच की बात । योग-वियोग दोउन में इक सम नित्य जरावत गात ॥ जब-जब लखत तर्बाहि तब चरनन, वारत तन मन प्रान । जासो अधिक कहा तुम निरदय चाहत प्रेम प्रमान ॥ सतत घुरावत ऐसो निज तन, अन्तर तनिक न भावत । निराकार है जात यहाँ लो तउ जनको तरसावत ॥ यह स्वभाव को रोग तिहारो हिय आकुल पुलकावे । सत्य बतावहु का इन बातनि, हाथ तिहारे आवै ॥