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________________ गृह-जीवन १३१ जब आपने अपनी यह कविता चतुर्वेदी देवीप्रसादजी एम० ए० को सुनाई तो चतुर्वेदीजी ने कहा - " विवाह के बाद हम तो आपके मुख से कोई शृङ्गारमय कविता सुनने की उम्मेद करते थे और आप यह बनाके लाये है--" भयो क्यो अनचाहत को सग ।" उन्ही दिनो आपने अपने मित्र जीवनशंकरजी याज्ञिक एम् ए० को लिखा था कि सूरदास का पद " कुसमय मीत काको कवन" भेज दीजिये । याज्ञिकजी ने पद भेजते हुए लिखा था "क्या मैं समझ गया हूँ कि आपको यह पद किसके लिये मँगाना पडा है ?"-- यहाँ पर एक बात और लिख देना आवश्यक है । वह यह कि श्रीमती सावित्री देवी आमोदिनी को जो पत्र भेजती थी उनका कुछ भाग हिन्दी लिपि मे और कुछ गुरुमुखी लिपि मे होता था । हिन्दी लिपि मे तो साधारण सी बाते होती थी और गुरुमुखा मे न जाने क्या-क्या लिखा रहता था । सत्यनारायणजी ने गुरुमुखी के इन पत्रो का अन्वेषण किया था और उनमे निकाला था - - "दुष्ट मुकुन्द का सत्यानाश ।” इस नाजुक और दुखद विषय पर अधिक प्रकाश डालने की आवश्यकता नही । सम्भवतः इस पत्र-व्यवहार के पढनेवाले कई सज्जन सत्यनारायणजी को बेहद नर्मी व कमजोरी का अपराधी बतलावेगे और कुछ अंशो मे उनकी यह सम्मति युक्तिसंगत भी होगी, पर जो लोग सत्यनारायणजी के कोमल स्वभाव को अच्छी तरह जानते थे उनके हृदय में सत्यनारायणजी के प्रति सहानुभूति ही उत्पन्न होगी । . सत्यनारायणजी के प्रति जो हृदयहीनतापूर्ण व्यवहार हुआ था उसका कारण ढूंढते ढूंढते हमारे साथ श्रीमती सावित्री देवी के नाम का सुखसंचारक कम्पनी मथुरा का ४।३।१६ का निम्नलिखित कार्ड पड गया- बी० पी० विभाग सुख संचारक को पारसल नं० १९५७ ४ । ३ । १६ मथुरा आपकी सेवा मे आज्ञानुसार नीचे लिखे हिसाब से माल भेजा है । ११
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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