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गृह-जीवन
१२३ यदि मैने मनसा-वाचा-कर्मणा कोई अन्याय आपके साथ किया हो तो उसके लिये मै बारम्बार क्षमा माँगता हूँ। आपके लिखने के अनुसार जबजब अकेले x x x जी नही-किसी ने भी आप के आने के विषय मे पूछा सबको यही उत्तर दिया गया कि उनसे ही पूछ लो । उदाहरण के लिये कन्या-पाठशाला रावतपाडा वाले, जिनकी ओर से आपको पाठशालानिरीक्षण के लिये निमत्रण मिला था, बार-बार पूछते है। उनसे भी यही कहना पडा है और मेरे पास उपाय ही क्या है ? x x x जी अथवा जिस किसी ने आपको जो कुछ लिखा है अपनी हो ज़िम्मेदारी पर लिखा है । आपके न्याय वा अन्याय की परिभाषा अभी तक मेरो समझ मे नही आई । न जाने आप किसे न्याय कहती है और किसे अन्याय । यथासम्भव मैने तो अब तक कोई भी विरुद्धाचण नही किया है, क्योकि आपकी मर्जी के अनुसार, लाख-लाख विरोध होते हुए भी, आपको-रविनगर ले गयाआपको वही छोड आया। आपने लिखा-गर्मी मे नही 'आऊँगो' । अच्छा साहब, जैसी मर्जी । आपने तार दिया, पत्र लिखे कि यहाँ मत आओ। सो अभी तक आपको मुंह नही दिखलाया है । आपका आर्डर आया कि यह भी मत पूछो कि "कब आओगी'। उनके अनुसार, चाहे मै दुख में हूँ या अन्य बाधाओ से घिरा हुआ है, वह भी नही पूछा ! जिन आमोदिनीजी को आज्ञापालनार्थ रविनगर गया उन्ही को कई पत्र डाले। सबके उत्तर नदारद । व्यर्थ बातो का वे क्यो जवाब दें? खैर भाई, हमने अपराध ही ऐसा किया है। इतने पर भी आपको अकारण ही कष्ट उठाना पड़े तो इसमे मेरा क्या वश है ? रही मेरी जान, सो उससे काम चले तो वह भी हाज़िर है । ऐसी दशा मे जब आप अपनी तकदीर को रोती है तो कृपया बतलाइये मैं क्या करूँ ? कभी-कभी पत्र लिख देता हूँ। यदि इसके लिये भी आप निषेध करे तो उसके अनुसार चलूँ । जो कुछ मुझे लिखना या पूछना था, पूर्व पत्रों मे लिख चुका हूँ। अब अधिक लिखना व्यर्थ है । मैं भी इस जीवन से तंग आगया हूँ। जो कुछ मैने सोच लिया है उसे समाप्त करते-करते यह शरीर ही नही रहेगा! और यदि मौत आगई और यह बच