________________
१२२
पं० सत्यनारायण कविरत्न
एक दूसरे पत्र मे सत्यनारायणजी को ये पक्तियाँ लिखी गई थी—
"यह प्रहार प्रेमोपहार हॉ इसी दिशा मे आने दो । कठपुतली - सा हमें विवश करके भरपूर नचाने दो ।
इसका साथी बनो मुझे पर्वाह नही है ।
X
X
X
भला मिटाये मिट सकती है जब है इतनी चाह मुझे ।
इस विचित्र विचार - प्रवाह को यही रोककर हम सत्यनारायणजी का २४।७।१६ का पत्र ज्यो का त्यो उद्धृत करते है ।
श्री
श्रीमती,
धाधूपुर
२४।७।१६
यथायोग्य |
आपके दो पत्र मिले | उत्तर में निवेदन है कि जैसा मै लिखता रहा हूँ उसी संकल्प पर दृढ हूँ । विचारे x x x जी ने कभी अनुचित परामर्श नही दिया और न मैं घर का वकील होते हुए उनके पास मुकद्दमेबाजी की सलाह लेने गया । अभी तक इसका जिक्र भी नहीं है । यदि आवश्यकता पड़ी तो आप ही मेरी मुसिफ़ है, आप ही मेरी जज हैं। दस्त-ब- दस्ता असालतन आपके ही हुजूर मे फरियाद की अर्जी लेकर हाजिर हूँगा । आपसे अच्छा और कौन हाकिम मिलेगा जिसके पास जाकर अपना दुख सुनाऊँ ? न मैने आपके पत्रो को ही उन्हें दिखाया है । दिखाने योग्य ही नही । और फिर दिखाने का फल? हाँ, मैंने उन पत्रों को सुरक्षित रख छोड़ा है— आपके पाणिपल्लव का प्रथम प्रसाद है । उसकी जितनी क़दर की जा थोडी | आपकी तरह फाड़ नहीं डाला है ।