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पंचम हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन
पंचम हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के अवसर पर लखनऊ मे सत्यनाराणजी ने 'व्रजभाषा' नाम की जो कविता पढ़ी थी वह उनकी अन्य सब रचनाओ से उत्तम कही जा सकती है। चतुर्वेदी अयोध्याप्रसादजी पाठक इस कविता के विषय मे लिखते है:
"लखनऊ-साहित्य-सम्मेलन मे श्रीश्यामसुन्दरदास व श्रीपुत्तनलाल विद्यार्थी के प्रबन्ध के कारण सत्यनारायणजी को मौका मिलना कठिन था कि वे उसे पढे या सुनावे । इसलिये सम्मेलन के सभापति श्रीमान् श्रीधर पाठकजी को शाम के वक्त डेरे पर जा घेरा। वे घूमकर आये थे। कपड़े उतारने जाते थे। "ब्रजभाषा" सुनाई गयी । पाठकजी बड़े प्रसन्न हुए
और कहा--"आहा ! रासपञ्चाध्यायी का आनन्द आ गया !" दूसरे दिन प्रोग्राम के बीच मे ही पाठकजी ने सूचना दे दी कि सत्यनारायणजी कविता सुनावेगे। पडितजी प्लेटफार्म की सीढियो पर बड़ी मुश्किल से बैठने दिये गये थे । झट लपककर ऊपर चढ गये और कबिता सुनाना प्रारम्भ किया । बडा प्रभाव पड़ा। जिन महाशयो ने पण्डितजी का अनादर किया था वे हाथ जोड़कर क्षमा प्रार्थना करने लगे, लेकिन, पडितजी ने बुरा ही नही माना था, क्षमा क्या करते ?"
'ब्रजभाषा' इतनी बढिया कविता है कि उसको यहाँ पूर्णतया उद्धृत किया जाता है*--
श्रीहरि
श्रीब्रजभाषा सजन सरस घनश्याम अब, दीजे रस बरसाय । जासो ब्रज-भाषा-लता हरी भरी लहराय ॥ भुवन विदित यह यदपि चारु भारत भुवि पावन ।
पै रसपूर्न कमंडल ब्रजमंडल मनभावन ॥ *यह कविता पहले अलीगढ-सम्मेलन मे पढी गयी थी। लेखक