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________________ पं० सत्यनारायण कविरत्न नसी यदपि जो नासवान छिनभंगुर जिह प्रभुताई। तदपि बिमल बिलसति जाके हिय प्रणव वेद निपुनाई । अटल भारती-प्रभा-प्रभाकर जा भुवि परम प्रकासा । का आश्चर्य तहाँ बुधवर मन-पंकज करहि बिकासा ? ज्ञानवान साहित्य-तत्त्वविद सुभग सरल हिय सुन्दर । क्यो न होहि तह भारतेन्दु सम पूरण प्रेम धुरधर ॥ तिन कीरति की चारुचन्द्रिका-चुम्बन को चित भावै । जनु हिन्दी-साहित्य-रसिक-उरउदधि उमङ्गत आवै ॥ वा साहित्य-मरोज-मधुर-मधु-चाखन को ललचाये। अलबेले अलि-वृन्द चहूँ दिसि सो मानो घिरि आये। सरस प्रेमघन-स्वॉति-बूंद के पीवन को मतवारे । 'हिन्दी' 'हिन्दी' रटत सबै ये सज्जन यहाँ पधारे ॥ जननी-जन्मभूमि भाषा के जे अविचल अनुरागी। तिन दरसन लहि चरन-परसि हमहूँ अतिशय बड़भागी॥ बड़े भाग सो आज जुरयो यह सम्मेलन मनभावन । समयोचित सुप्रयागराज मे पुण्य-हृदय-पुलकावन ॥ बद्ध नागरी-भक्त-भक्ति की लता लहलही प्यारी। जाकर जनु यह स्वच्छ पुष्प है सरस सुलभ उपकारी ।। अथवा हिन्दी-दुःख-दलन को बालकृष्ण को रूपा। मजुल मधुर मनोमोहन अति सोहन नवल स्वरूपा ॥ 'हिन्दी' 'हिन्दू' हृदय भाव के ऐक्य रसहिं बरसावन । मुरझाई साहित्य-बेलि-हित यह धाराधर पावन ।। जाके दरसन को हमरो मन सदा रहत अनुरागत । अस नित नव साहित्य-देह धर करत तिहारो स्वागत ॥ हे गोविन्द ! प्रेमघन ! याकी सब बिधि रक्षा कीजो। सुधा-सलिल सरिसाय सुहावन सत्य याहि सुख दीजो ॥
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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